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जैनविद्या
करनेवाली भाषा को अपनाया है। जैन कवियों की भाषा की अतिशय विशेषता यह है कि उसमें पारिभाषिक शब्दावली का प्रचुर प्रयोग मिलता है। विवेच्य कवि ने ऐसे प्रयोगों में सहृदयतापूर्वक अर्थात्मा को श्रोता के हार्दिक मंच पर प्रतिष्ठित कर दिया है । प्रयुक्त भाषा में अनेक शब्द हिन्दी शब्दों के पूर्व रूप से प्रतीत होते हैं । यथा
कहिया-कथित (योगसार-10), चाहहु-इच्छित (प. प्र.-26), छह-षट् (यो. सा.-35), पोत्था-पुस्तक (यो. सा.-47), घीव-धी-घृत (यो.मा.-57) ।
विवेच्य काव्य की भाषा में कहीं-कहीं लोकोक्ति और मुहावरों का औचित्यपूर्ण प्रयोग मुखर हो उठा है । यही कारण है भाषा में लाक्षणिकता और प्रभावोत्पादकता आ गई है।
यथा
जसु हरिणच्छी हियवडए तसु गवि बंभु वियारि। एक्कहिँ केम समंति वढ़ बे खंडा पडियारि ॥
प.प्र. 1.121
अर्थात् जिसके हृदय में हरिणाक्षी सुन्दरी वास करती है वह ब्रह्म-विचार कैसे करे ? एक ही म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ? इसी प्रकार बलि जाना और शिर खल्वाट होना एक ही दोहा में एक साथ प्रयुक्त हैं । इससे अभिव्यक्ति में शक्ति का वर्द्धन होता है । यथा
संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउँ हउँ तासु । सो दइवेण जि मुंडियउ सोसु खडिल्लउ जासु ॥ प. प्र. 2.139
. अर्थात् जो विद्यमान विषयों को छोड़ देता है मैं उसकी बलि जाता हूँ । जिसका शिर खल्वाट अर्थात् गंजा है वह तो दैवयोग से भी मुंडा हुआ है अर्थात् मुंडिया संन्यस्त नहीं कहा जा सकता।
, पंचेन्द्रियजन्य सुखों की नश्वरता स्पष्ट करते हुए कवि अपनी कुल्हाड़ी अपने ही शिर मारे जैसी लोक-उक्तियों से अनुप्राणित प्रयोग कर अभिव्यक्ति में सजीवता उत्पन्न कर देता है यथा
विसय सुहइ बे विवहड़ा पुणु दुक्खहँ परिवाडि । ....... भुल्लउ जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि ।। .प.प्र. 2.138.
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विवेच्य कवि की वाग्धारा में लोकाभिव्यक्ति की पूरी छाप पड़ी है । वह कह उठता है कि बारबार पानी मथने से भी हाथ चिकने-चुपड़े नहीं होते । यथा
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णाण-विहीणहं मोक्ख-पउ जीव म कासु वि जोइ । बहुएं सलिल-विरोलियइं करु चोप्पडउ ण होइ ।
प. प्र. 2.74