Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 60
________________ जैनविद्या रूपक और उपमा जैसे सादृश्यमूलक अलंकारों का एक साथ प्रयोग भी दुर्लभ ही है । यहाँ समभावी प्राणी को संसाररूपी सागर से पार उतरने के लिए नाव के समान कहा गया है । यथा 46 जो गवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव । तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो नाव || प. प्र. 2.105 कवि ने ऐन्द्रिकरस भोगी जीव के विनाश का वर्णन उल्लेख अलंकार में स्वाभाविक रूप से किया है । कवि कहता है कि रूप में लीन पतंगा, शब्द-स्वर में लीन मृग, स्पर्शन में श्रासक्त हाथी, गंधलोभी भ्रमर, आस्वादलोभी मच्छ विनाश को प्राप्त होते हैं फिर भला पंचेन्द्रयभोगों के परिणाम का क्या कहना ? यथा रुवि पतंगा सद्दि मय गय फासहिँ णासंति । लिउल गंध मच्छ रसि किम श्रणुराउ करंति || प. प्र. 2.112 कवि ने अपने प्रयोजनार्थ उदाहरण और दृष्टान्तों का बड़ा ही प्रिय प्रयोग किया है । इससे कवि का लोक-बोध सहज ही प्रमाणित हो जाता है । परद्रव्य का सम्बन्ध महान् दुःखद है, कवि इसे निम्न दृष्टान्तों के सहयोग से शब्दायित करता है । जिन प्राणियों का सम्बन्ध दुष्टों के साथ है उनके सत्य और शील गुण भी विनश जाते हैं जैसे- जब लोहे में अग्नि की संगति होती है तब उस पर घन - प्रहार कर उसके रूप को परिवर्तित किया जाता है । यथा भल्लाहं वि णासंति गुण जहं संसग्ग खलेहिं । asures लोहहं मिलिउ ते पिट्टियइ घणेहिं || प. प्र. 2.110 जीव को सम्बोधता हुआ कवि कहता है कि जिस प्रकार आकाश शुद्ध है उसी प्रकार आत्मा भी शुद्ध है । दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि आकाश जड़ है और आत्मा चैतन्यस्वभावी है । यथा जेह सुद्ध प्रयासु जिय तेरह अप्पा वृत्तु । आयासु वि जड जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥ इसी प्रकार कवि ने स्पष्ट किया है कि सांकल लोहे की हो अन्तत: है सांकल ही । इसी उदाहरण से कवि कहता है कि शुभ और ग्रन्थियां हैं जो ऐसा समझता है वही ज्ञानी है । यथा यो. सा. 59 अथवा सोने की वह अशुभ दोनों ही कर्म जह लोहम्मिय णियड बुह तह सुण्णम्मिय जाणि । जे सुहु प्रसुह परिच्चर्याहं ते वि हवंति हु णाणि || यो. सा. 72 लोक-प्रसिद्ध दृष्टान्त को अपनाकर कवि ने अपना मन्तव्य सहजरूप में उपन्यस्त कर जनसामान्य का ध्यान आकर्षित किया है - जिस भांति कमलिनि का पत्र कभी भी जल से

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