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योगीन्दुदेव
और हिन्दी संत-परम्परा
-डॉ. भागचन्द जैन 'भास्कर'
आचार्य योगीन्दु अपभ्रंश साहित्य के कुन्दकुन्द हैं जिन्होंने अध्यात्मक्षेत्र को नया प्रायाम दिया है और दर्शन की परिसीमा को विस्तृत किया है । वे स्वयं प्रखर भक्त, प्राध्यात्मिक संत और कठोर साधक थे। उनकी साधना स्वानुभूति और स्वसंवेद्यज्ञान पर आधारित थी इसलिए उनके ग्रन्थ रहस्यभावना से ओत-प्रोत हैं । उनका हर विचार अनुभूति की पवित्र निकष से निखरा हुआ है जो संप्रदायातीत और कालातीत है ।
कितना आश्चर्य का विषय है कि ऐसे महान् अध्यात्म-रसिक कवि का जीवन-वृत्तान्त लगभग न के बराबर उपलब्ध होता है।
योगीन्दु का काल भी निर्विवाद नहीं है। डॉ० उपाध्ये ने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वे ईसा की छठी शताब्दी में हुए हैं। । चण्ड ने अपने प्राकृत व्याकरण में प्राकृत लक्षण के संदर्भ में 'परमात्मप्रकाश' का 85 वां दोहा- उदाहरण के रूप में सम्मिलित किया है । हर्ले की दृष्टि में यह उदाहरण वररुचि के बाद समाहित किया गया है । वररुचि का समय 500 ई. के आसपास माना जाता है । गुणे इसे छठी शताब्दी के बाद का मानते हैं । इधर आचार्य हेमचन्द्र (1089-1173) ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में