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जनविद्या
वाङ्मय के भेदों में से एक माना है। शास्त्र के अन्तर्गत वेद, वेदांग, आन्वीक्षिणी, दन्तुनीति, ज्योतिष, तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विद्याओं के साथ ही साहित्य-विद्या भी समाविष्ट है । प्राचार्य राजशेखर ने साहित्य विद्या को सभी विद्याओं का सार कहा है ।
किसी भी काव्य का कथ्य-कथानक, रस-निरूपण, प्रकृति-चित्रण तथा अलंकार, छन्द, भाषा विषयक शीर्षक काव्यशास्त्रीय निकष के प्रमुख और आवश्यक अंग अंगीकार किये गये हैं। यहाँ विवेच्य कविवर के काव्य का मूल्यांकन इनही तत्त्वों के आधार पर करना समीचीन होगा।
जैन कवियों का दृष्टिकोण पुरुष के पुरुषार्थ चतुष्ट्य की चरम सीमा को स्पर्श करता है । किसी भी काव्यरूप में रचा गया काव्य का सार-सारांश मोक्ष की ओर उन्मुख होता है ।
परमात्मप्रकाश का कथ्य मोक्ष पुरुषार्थ से अनुप्राणित एक उत्कृष्ट कोटि का है जिसका फलागम बहिरात्मा से अन्तरात्मा की ओर उत्प्रेरित होता है और यहाँ से प्रोन्नत होता हुआ वह परमात्मा के रूप को धारण करता है। भव-भ्रमण में तल्लीन बहिरात्मा जब निवृत्तिमार्ग की ओर उन्मुख होता है तब वह बहिरात्मा से अन्तरात्मा का रूप धारण करता है। यहाँ आकर उसका पुरुषार्थ तप और संयम से अनुप्राणित होकर आत्मोन्मूखी होता जाता है । इसकी अन्तिम परिणति तब मुखरित होती है जब प्राणी की सारी प्रवृत्तियाँ विरागमुखी हो जाती हैं। इतना ही नहीं कथ्य नियताप्ति से पुरस्सर होता हुआ फलागम की ओर उन्मुख होता है और ऐसी स्थिति में राग-विराग की कहानी समाप्त होकर पूरी तरह वीतरागमय हो जाती है। यह प्रात्मा की उत्कृष्ट अवस्था परमात्म अवस्था है।
व्यक्ति-उदय से वर्गोदय का प्रयास सर्वथा स्तुत्य है किन्तु इस प्रयास की उत्कृष्ट अवस्था वहाँ है जहाँ वह व्यक्ति और वर्ग से भी ऊपर उठकर सर्वोदय के लिए बन जाता है । इस कृति का शीर्षक भी इसके कथ्य की आत्मा को प्रभावित करता है-परमात्मप्रकाश अर्थात् आत्मा का संवाहक प्रालोक ।
कवि की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति है योगसार और इसका कथ्य भी आध्यात्मिक है । यहाँ भी प्रात्मा के विविध रूपों का विवेचन किया गया है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा का उल्लेख करते हुए विवेच्य कवि परमात्मा के स्वरूप का चिन्तवन करने का प्राग्रह करता है । काव्य में पाप-पुण्य का यथेच्छ उल्लेख करते हुए सकल-कर्म-विरत होने का आग्रह किया गया है। साधक जब पाप और पुण्य का पूर्णत: परित्याग कर प्रात्मध्यान में सक्रिय हो जाता है तभी ज्ञानी समस्त कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है और भव-भ्रमण से छुटकारा अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार विवेच्य काव्य का कथ्य प्रात्मोद्धारक है, कल्याणकारी है । यद्यपि यहाँ कथाजन्य इतिवृत्तात्मक रूप का सर्वथा अभाव है किन्तु जो है उसका प्रभाव अतिशय है । जीवन की सर्वांगीणता का सार इसमें निहित है अत: यह प्रेरक और पुरस्कारक है, प्रभावक और आत्मोद्धारक है।