Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 46
________________ जैन विद्या जोइंदु ने अद्वैत सिद्धि की भावना की है। आत्मा और परमात्मा में अभेदबुद्धि उत्पन्न हो जाना ही अद्वैत - सिद्धि है । प्रसिद्ध सन्त सुन्दरदासजी का कथन है— 32 श्रापु ब्रह्म कछु भेद न जाने, श्रहं ब्रह्म ऐसे पहिचाने, सोहं सोहं सोहं सोहं, सोहं सोहं सोहं शंसो स्वासौ स्वासं सोहं जापं, सोहं सोहं प्रापं श्रापम् ॥ जोइंदु कहते हैं जो परमप्पा णाणमउ, सो हउं देउ श्रणंतु । जो हउँ सो परमप्पु पर, एहउ भावि णिभंतु ॥ 2.175 जो ज्ञानमय परमात्मा है वही अनन्तदेवस्वरूप मैं भी हूँ। जो मैं हूँ वही परमात्मा है, तू इस प्रकार की भावना कर । कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि जोइंदु की विचारधारा सम्प्रदाय निरपेक्ष अधिक है । वास्तविकता तो यह है कि सिद्धों, नाथों, जैनों एवं आगे चलकर सन्तों की विचारधारा में एक अद्भुत साम्य दिखाई पड़ता है। ये सभी मत-सम्प्रदाय समानान्तर विकसित हो रहे थे और यह कहना कठिन है कि किसका प्रभाव किस पर अधिक है । दर्शन की पारिभाषिक शब्दावलियाँ भले ही भिन्न हों किन्तु उनके भीतर की चेतना एक ही है और वे सभी एक ही अविच्छिन्न परम्परा की कड़ी मात्र हैं । रूढ़ियों पर व्यंग्य करने या खंडन करने की दृष्टि से जो अक्खड़ता, जो साहस, जो व्यंग्य और जो तीव्रता सिद्धों में मिलती है। वही रहस्यवादी जैन कवियों में भी उपलब्ध होती है । वस्तुतः इनका तत्त्वज्ञान शास्त्रीय की अपेक्षा अनुभवगम्य अधिक है । इन्होंने श्रात्मा-परमात्मा की स्थिति का प्रत्यक्ष अनुभव कर लोक व्यवहार की दृष्टि से उनका अंकन किया है। जोइंदु, मुनिरामसिंह आदि सभी जैन कवियों ने दर्शन की जटिलताओं से अपने को मुक्त कर एक ऐसे लोक-सामान्य मार्ग के प्रवर्तन का प्रयत्न किया है जिसका मूल प्रेरक तत्त्व स्वानुभूत अध्यात्म-चिंतन है । यह सत्य है कि इन्होंने साधना, मोक्ष, समाधि, जीव, पुद्गल आदि पर जैन दर्शन की दृष्टि से विचार किया है किन्तु इनके मन्तव्यों में कहीं भी दुरूहता नहीं है । इनका मुख्य लक्ष्य सामान्य जनता को धर्म-साधना में प्रवृत्त कराने का था और इसके लिए जिस शैली का इन्होंने उपयोग किया वह शैली सामान्य जीवन से गृहीत थी । काव्य तत्व - प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जैन तत्त्वज्ञों के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए लिखा है - " अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्वनिरूपण - सम्बन्धी हैं, जो साहित्य कोटि में नहीं आतीं ।" नाथों, सिद्धों, सन्तों आदि के यही दृष्टिकोण रहा है । कहना व्यर्थ है कि शुक्लजी का यह नहीं रह गया है । सम्बन्ध में भी शुक्लजी का दृष्टिकोण प्राज निर्विवाद वस्तुतः जिस कसौटी पर इन रचनाओं को परखने की चेष्टा की जाती है वह कसौटी 'रस' की है । प्रश्न है कि क्या रस को ही कविता की एकमात्र कसौटी के रूप में स्वीकार

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