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जैन विद्या
जोइंदु ने आत्मज्ञान के समक्ष शास्त्रज्ञान को निम्नकोटि का माना है । श्रात्मज्ञान से बाहर शास्त्रज्ञान किसी काम का नहीं है । जो शास्त्रों को पढ़ता है किन्तु परमार्थ को नहीं जानता वह मोक्ष नहीं पा सकता। इस लोक में ज्ञान के निमित्त शास्त्र पढ़े जाते हैं, किन्तु शास्त्र को पढ़ने से भी जिसको उत्तम ज्ञान नहीं हुआ क्या वह मूर्ख नहीं है ? तीर्थ भ्रमण से, केश - लुंचन से और शिष्य - शिष्या बनाने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता बल्कि मोक्ष की उपलब्धि होती है अपरिग्रह से, ज्ञान से ।
बोणिमित्तं सत्थु किल, लोइ पढिज्जइ इत्थु । तंगवि बोहुण जासु वरु, सो कि मूढ ण तत्थु 11 तित्थ तित्थु भमंताहं, मूढहं मोक्खुण होइ । to विवज्जिउ जेण जिय, मुणिवरु होइ ण सोइ ॥
राय-दोस वे परिहरिवि, जे सम जीव णियंति । ते सम भावि परिठिया, लहु णिव्वाणु लहंति ॥
इंदु समत्वभाव के उपासक हैं । इन्होंने संसार के सभी प्राणियों में समभाव देखा है । संसार के सभी प्राणी समान हैं । जीवों में मोक्ष कर्म से होता है किन्तु कर्म जीव नहीं होता । जाति से जीव श्रेष्ठ है अतः सभी जीवों में समभाव रखनेवाला ही मोक्ष प्राप्त करता है ।
जो रागद्वेष को दूर कर सब जीवों को समान जानते हैं वे साधु शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं । गीता में भी इस सत्य की
सर्वभूतेषु येनैकं भावभव्ययमीक्षते । श्रविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ॥
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जिस लोण विलिज्जइ पाणियहँ तिम जइ चित्तु विलिज्ज । समरसि हूजइ जीवडा काइँ समाहि करिज्ज ॥
'दोहाकोश' में ठीक ये ही पंक्तियां हैं
समभाव में विराजमान
विवृति हुई है
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जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सभी प्राणियों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान जानो ।
जिम लोण विलिज्जइ पाणि एहि तिम धरिणी लइ चित्त । समरस रसि जाइ तक्खणे जइ पुणु ते सम पित्त ॥
मुनि रामसिंह ने 'पाहुड़ दोहा' में लवण - पानी की समरसता से इस समत्वभाव को समझाया है ।
18.20