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जनविद्या
अप्पा णियमणि णिम्मलउ, णियमें वसइ रण जासु । सत्थ पुराणई तवचरण, मुक्खु वि कहिं कि तासु ॥
1.98
जिसके हृदय में निर्मल आत्मा का निवास नहीं होता उसे शास्त्र, पुराण, तपस्या आदि क्या मोक्ष दे सकते हैं ?
सन्तों ने भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये हैं । पलटू साहिब कहते हैं
पलटू दोउ कर जोरि के, गुरु संतन को सेव । जल पषान को छांडि के पूजो प्रातम देव ॥
जोइंदु ने माना है कि परमात्मा का निवास मंदिर की पाषाण-प्रतिमा में नहीं होता वरन् जिस प्रकार हंस मानसरोवर में निवास करता है उसी प्रकार आत्मदेव शुद्ध मन में ही निवास करते हैं
देउ रण देउले गवि सिलए, गवि लिप्पइ रणवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ, सिउ संठिउ समचित्ति ॥ 1.123
अर्थात्, आत्मदेव देवालय में, पाषाण में, लेप में और चित्र में नहीं रहता । वह अक्षय, निरंजन, ज्ञानमय शिव समचित्त में निवास करता है।
जोइंदु ने 'मोक्षाधिकार' में जहां एक ओर मोक्षसम्बन्धी शास्त्रीय सिद्धान्तों का गम्भीरतापूर्ण विवेचन किया है वहीं दूसरी ओर सामान्य जन के लिए व सर्वसुलभ मार्ग का भी प्रतिपादन किया है। मोक्ष के लिए कर्मों का क्षय आवश्यक है। देव, गुरु और. शास्त्र की भक्ति से पुण्य हो सकता है किन्तु कर्मों का क्षय नहीं होता। कर्मों का क्षय तो चित्तशुद्धि से ही होता है । चित्त की शुद्धि के बिना मोक्ष नहीं है ।
हिं भावइ तहिं जाहि जिय, जं भावइ करि तं जि । केम्वइ मोक्खु ण प्रत्थि पर, चित्तहं सुद्धि रण जं जि ॥
2.70
हे जीव ! जहां तेरी इच्छा हो वहां जा और जो अच्छा लगे वही कर लेकिन जब तक मन की शुद्धि नहीं है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
इसी भाव को सिद्ध सरहपाद ने 'दोहाकोश' में कहा है
बनभइ कम्मेण जणो कम्मविमुक्केण होइ मणमुक्को ।
मण मोक्खेण अणुअरं पाविज्जइ परम णिव्वाणं ॥124॥ हिन्दी छाया-बंधे कर्म से जना, कर्म विमुक्त होइ मन मुक्त ।
मन-मोक्ष के पीछे ही पावै परम निर्वाण ॥