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जैन विद्या
किया जा सकता है ? आज के अधिकांश नये समीक्षक इस बात पर सहमत हैं कि कविता के प्रतिमानों का एकमात्र सम्बन्ध रस से नहीं हो सकता । साहित्य - शास्त्र के अनुसार रस के मूल में भाव हैं और 'अमरकोश' के अनुसार "विकारो मनसोभावः ।" 'रसतरंगिणी' में भानुदत्त ने इसे तनिक स्पष्ट करते हुए लिखा है- " रसानुकूलो विकारो भावः ।" भाव या मनोविकार रस- सिद्धान्त में कितना भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हों सन्तों एवं दार्शनिकों ने इन्हें प्रेम ही माना है । उनके मन में रति, क्रोध, मान, मद, मोह आदि प्रात्म-साक्षात्कार मार्ग में बाधक ही हैं और इनसे छुटकारा पाना ही जीव के लिए श्रेयस्कर है । अतः रस को काव्य की आत्मा और श्रृंगार को रमराज माननेवाली दृष्टि सन्तों के काव्य का निकष नहीं हो सकती । वस्तुतः कविता की यह कसौटी ही गलत है ।
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जोइन्दु जैसे साधक सन्तों के काव्य की कसौटी न तो रस है, न प्रीति, न कीर्ति, न अलंकार और न रीति ध्वनि-प्रौचित्य चमत्कार - कला - नैपुण्य आदि । वासनाओं से मुक्त होकर आध्यात्मिक मूल्यों का चिन्तन, सम्यक्त्व की उपलब्धि, प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति, परमसमाधि का व्याख्यान, शुद्धोपयोग की मुख्यता का प्रतिपादन, परद्रव्य, मोह, लोभ, कषाय आदि का त्याग, अभेद रत्नत्रय का व्याख्यान आदि ही इनके काव्य के मूल प्रेरक तत्त्व हैं । इनका काव्य मनोविकारों के तनाव से मनुष्य को मुक्त कर सनातन सत्य की उपलब्धि कराता है । इसीलिए इन सन्तों का काव्य सुरसरि के समान सबका हित करनेवाला है । अभिनव गुप्त ने जिसे शान्तरस का काव्य कहा है, लांजाइनस ने जिसे उदात्त काव्य कह कर सम्मानित किया है, कान्ट ने जिसे भाव - निवृत्ति, हीगेल ने प्राध्यात्मिकता और ब्रेडले ने ग्रात्मप्रसार की अनुभूति का काव्य कहा है, जोइन्दु का काव्य भी उसी कोटि का है । तत्त्वबोध का आनन्द ही इस काव्य की आत्मा है और यही इसकी विशिष्टता भी है ।
इन्दु ने अपने कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए यद्यपि कहीं कहीं अलंकारों का भी प्रयोग किया है किन्तु ये अलंकार - प्रयोग सहज-स्वाभाविक रूप में आ गए हैं, ये प्रयासजन्य नहीं हैं । इन्होंने स्वानुभूत सत्य को सहज, सुबोध, सीधी-सादी किन्तु अथगर्भित भाषा-शैली में अभिव्यक्त किया है । इनकी शैली काव्य रूढ़ियों में बंधकर चलनेवाली नहीं है वरन् उद्दाम सरिता के समान स्वच्छन्द है । यत्र-तत्र अलंकारों की छटा भी दर्शनीय है । जैसे—
उपमा
- ( क ) मन में देवता उसी प्रकार रहते हैं जिस प्रकार मानसरोवर में हंस ।
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(ख) यदि कोई अाधी घड़ी भी परमात्मा से प्रेम करता है तो जिस प्रकार अग्नि कणिका काष्ठ के पहाड़ को दग्ध कर देती है उसी प्रकार यह पापों को भस्म कर
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श्लेष से पुष्ट व्याजस्तुति अलंकार - जो साधु समभाव करता है उसमें दो दोष होते हैं । एक तो वह अपने बन्धु (बन्ध) को नष्ट करता है और दूसरे जगत् के प्राणियों को बावला (नग्न - दिगम्बर) बना देता है ।
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