Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 53
________________ जनविद्या 39 अर्थ-यदि तू प्रात्मा को प्रात्मा समझेगा तो निर्वाण को प्राप्त कर लेगा और यदि पर को प्रात्मा समझेगा तो संसार में भ्रमता रहेगा। इच्छारहियउ तव करहि, अप्पा अप्पु मुणेहि । तो लहु पावहि परमगई, फुड संसारु ण एहि ॥ 13 ॥ अर्थ-- हे जीव ! यदि तू इच्छारहित होकर तप करेगा और स्वयं (आत्मा) को पहिचान लेगा तो निश्चय से परमगति (मुक्ति) को प्राप्त कर लेगा और पुनः संसार में नहीं आवेगा। अह पुणु अप्पा णवि मुणहि, पुण्णु जि करहि असेस । तो वि ण पावहि सिद्धि-सुहु, पुणु संसारु भमेस ॥ 15 ।। अर्थ-हे जीव ! यदि तू आत्मा को नहीं पहचानेगा और पुण्य ही पुण्य करता रहेगा तो भी तुझे सिद्धिसुख (मुक्ति का प्रानन्द) नहीं प्राप्त होगा और बार-बार संसार में भ्रमण करेगा। जाम ण भावहि जीव तुहं णिम्मल अप्प सहाउ । ताम ण लम्भइ सिव-गमणु जहिं भावइ तहि जाउ ॥ 27 ॥ अर्थ-हे जीव ! जब तक तू निर्मल प्रात्मस्वभाव की भावना नहीं करेगा तब तक तुझे मोक्ष नहीं मिल सकता । जहाँ तुझे अच्छा लगे वहाँ जा। वय-तव-संजम-मूल-गुण मूढहें मोक्ख ग वृत्त । जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ 29 ।। अर्थ-मिथ्यादृष्टि के व्रत, तप, संयम और मूलगुण तब तक मोक्ष के कारण नहीं हो सकते जब तक कि वह एक परमशुद्ध और पवित्र भाव को नहीं जान लेता । पुणि पावइ सग्ग जिउ पावएँ णरय-णिवासु । बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लन्भइ सिववासु ॥ 32 ॥ अर्थ-यह जीव पुण्य से स्वर्ग और पाप से नरक में जाता है और जो इन दोनों को छोड़कर प्रात्मज्ञान की प्राप्ति कर लेता है उसे मोक्ष में आवास प्राप्त होता है। अप्पा अप्पई जो मुणइ जो परभाउ चएइ । सो पावइ सिवपुरि-गमणु जिणवर एम भणेइ ॥34॥ अर्थ-जो परभाव को छोड़कर आत्मा को प्रात्मा के द्वारा जानता है उसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।

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