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जैनविद्या
तीर्थंकरों और उनके पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों, ग्रन्थकारों ने इसीलिए परपदार्थों से संबंध हटा आत्मरत होने की शिक्षा दी थी। केवल यह ही एक मार्ग है जो जीव को बहिरात्मा से अन्तरात्मा बना कर अन्त में परमात्मपद तक पहुंचा देता है जहाँ अनन्त सुख का अथाह सागर लहराता है, जहाँ दुःख का लेशमात्र भी नहीं है तथा जहाँ का सुख स्थायी है, शाश्वत है, कभी नष्ट होनेवाला नहीं है । यही अध्यात्म है । भगवान् महावीर के पश्चात् अध्यात्म की ओर प्रेरित करनेवाले ज्ञात रचनाकारों में सर्वप्रथम कुन्दकुन्दाचार्य का नाम आता है जिन्होंने प्राकृत भाषा में अध्यात्मगंगा को प्रवाहित किया।
अपभ्रंश भाषा में यह श्रेय कवि योगीन्दु (अपभ्रंश नाम जोगचन्द) को प्राप्त है । इनकी वर्तमान में दो रचनाएं, परमप्पपयासु (परमात्मप्रकाश) एवं जोगसार (योगसार) हैं । यद्यपि इनकी कुछ अन्य रचनाएँ भी बताई जाती हैं किन्तु उन पर शोधी-खोजी विद्वानों में मतभेद है । परमप्पपयासु तथा जोगसार नामक रचनाओं को निर्विवादरूप से श्रीमद्योगीन्दु द्वारा रचित स्वीकार कर लिया गया है । इनमें से 'जोगसार' पर इन पंक्तियों में कुछ विचार किया जा रहा है।
जोगसार का यह नाम कवि द्वारा दो आधारों पर रखा गया प्रतीत होता है । एक तो कवि का स्वयं का नाम जोगिचन्द्र, जोगचन्द अथवा योगचन्द था (अन्तिम दोहा और उसके पाठान्तर), दूसरे इसमें वर्ण्यविषय योग है।
.ग्रन्थ की रचना संसार से भयभीत मुमुक्षुत्रों के सम्बोधनार्थ की गई है (दोहा 3) । अन्तिम दोहे में ग्रन्थकार ने कहा है कि वह संसार के दुःखों से भयभीत है अतः उसने आत्म-सम्बोधनार्थ इन दोहों की रचना की है। दूसरे शब्दों में इसकी रचना स्वान्त:सुखाय हुई है, परमप्पपयासु की भांति प्रभाकर भट्ट अथवा अन्य किसी व्यक्तिविशेष को संबोधनार्थ नहीं।
कवि योगीन्दु का 'योग' वह योग नहीं है जो सूत्रकार उमास्वाति ने 'कायवाङ्मनः कर्मयोग' अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहा है । यह योग कर्मों के प्रास्रव का कारण है । 'पातंजल योगदर्शन' के समाधिपाद-1 में “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः", "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्" कहते हुए सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों के निरोध को योग संज्ञा से अभिहित किया गया है और उसका फल योगी का स्वरूप में स्थित होना बताया है । जैन परम्परा में इसी को 'एकाग्रचिन्तानिरोधः ध्यानम्' कहकर ध्यान नाम से पुकारा गया है।
योगीन्दु का योग क्या है यह समझने के लिए हमें योगसार के कुछ दोहों का जो नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं, अध्ययन करना होगा
अप्पा अप्पउ जइ मुहि, तो णिव्वाण लहेहि । पर अप्पा जइ मुणहि तुहुँ, तो संसार भमेहि ॥ 12 ।।