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योगसार का योग
- पं. भंवरलाल पोल्याका
उत्पत्ति का कारण बनती
जिस संसार सागर में हमारा आवास है वह प्रतिक्षण नित-नवीन घटित होनेवाली घटनाओं से तरंगित होता रहता है । ये तरंगे जब हमारी हृत्तन्त्री को झंकृत करती हैं तो हमारा मानस उनकी अनुभूति करता है । यह अनुभूति ही भावों की हैं। ये भाव अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। ये ही भाव जब क्रमबद्ध होकर लेखिनी द्वारा आकार ग्रहण करते हैं, वर्ण, अक्षर शब्द तथा वाक्य रूप में चित्रित होते हैं तो साहित्य का सर्जन होता है । साहित्य भी भावों के अनुसार अच्छा और बुरा हो सकता है, पाठक को सन्मार्ग अथवा असन्मार्ग की ओर ले जानेवाला हो सकता है, किन्तु भारतीय मनीषा अहितकारी साहित्य को साहित्य की परिभाषा में परिगणित नहीं करती। उनकी मान्यता में साहित्य का हितकारी होना आवश्यक है ।
मानव का हित क्या है ? मानव समेत संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है । दुःखी होना कोई नहीं चाहता । यह उसकी स्वाभाविक इच्छा है क्योंकि सुख श्रात्मा का स्वभाव है । उसके दुःखी होने का एकमात्र कारण है सांसारिक भौतिक इच्छात्रों / कामनाओं की सम्पूर्ति को ही सुख मान लेना । यह हमारी विपरीत मान्यता है क्योंकि इच्छाएँ प्रकाश के समान अनन्त हैं, एक इच्छा दूसरी इच्छा को जन्म देती है और दूसरी तीसरी को । इस प्रकार यह परम्परा चालू रहती है । इच्छापूर्ति से होनेवाले सुख के साथ दुःख का अविनाभाव सम्बन्ध है अतः यदि हमें सच्चा सुख प्राप्त करना है तो सांसारिक भौतिक कामनाओं का त्याग करना होगा । परोन्मुखी से स्वोन्मुखी होना होगा ।