Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 42
________________ जनविद्या विलीन हो जाती हैं उसी प्रकार विभिन्न धर्म-सम्प्रदाय अनेक मार्गों से चलकर एक ही चिरन्तन सत्य की खोज करते हैं। 'परमात्मप्रकाश' शब्द की व्याख्या करते हुए कृतिकार ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है । उनके अनुसार सभी कर्मों एवं दोषों से रहित, केवलज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य इन अनन्तचतुष्टयों से सम्पन्न जो जिनेश्वरदेव हैं वे ही परमात्मप्रकाश हैं । जिस परमात्मा को मुनिगण ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध आदि नामों से पुकारते हैं । ये सभी नाम रागादिरहित जिनदेव के ही हैं । मनुष्य अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इन नाना प्रकार के नामों से जिनदेव की ही आराधना करते हैं । जो परमप्पउ परमपउ, हरि हरु बंभु वि बुद्ध। परमपयासु भणंति मुरिण, सो जिणदेउ विसुद्ध । 2.200 कवि ने परमात्मा को निरंजन माना है । यह निरंजन शब्द साहित्य में विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । उपनिषद् ने भी-"निरंजनं परमसाम्यमुपैति” से ब्रह्म का निरंजन होना स्वीकार किया है । शंकराचार्य ने 'विवेक चूड़ामणि' में ब्रह्म का स्वरूप निरूपित करते हुए उसे निरंजन कहा है प्रतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं विशुद्ध विज्ञानघनं निरंजनम् ॥ सिद्ध सरहपाद ने परमपद को शून्य निरंजन माना है सुण्ण णिरंजण परमपउ, सुइणो मान सहाव । भावहु चित्त-सहावता, एउ णासिज्जइ जाव ॥ दोहाकोश, 138 कबीर ने भी ब्रह्म को निरंजन स्वीकार किया है अलख निरंजन लखै न कोई, निरभ निराकार है सोई । जोइन्दु ने निरंजन शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए किया है । इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं जासु ण वण्णु ण गंधु रसु, जासु ण सद्दु ण फासु।' जासु ण जम्मणु मरणु ण वि, गाउ णिरंजण तासु । जासु ण कोहु ण मोहु मउ, जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाणु ण झाणु जिय, सो जि रिणरंजणु । ___1.19,20 अर्थात् जो वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श से रहित है तथा जो जन्म-मरण से परे है, वही निरंजन है । जो क्रोध, मोह, मद, माया, मान आदि से अलग है, जिसका कोई स्थान नहीं है तथा जिसका ध्यान नहीं हो सकता वही निरंजन है और वही उपास्य है । जोइन्दु ने परम्परित विचारधारा की जड़ता को तोड़कर तथा अनेक अन्धविश्वासों का खंडन कर चिन्तन और भावन के जिन महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को उभारा है तथा सामान्य

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