Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 43
________________ जैनविद्या 29 आदमी की सामान्य सोच को जिस रूप में महिमामंडित किया है उससे उनके काव्य का महत्त्व शाश्वत एवं चिरकालिक हो गया है । जोइन्दु ने देह को बहुत महत्त्व दिया है । शास्त्राचार्यों ने देह को कर्मबन्धन का मूल मानकर इसके प्रति अच्छी धारणा नहीं रखी है किन्तु जोइन्दु सरहपाद जैसे क्रान्तिकारी सिद्धों की पंक्ति में खड़े हैं जिन्होंने देह को ही तीर्थ माना था। सरह ने कहा है कि इसी देह में सरस्वती, प्रयाग, गंगासागर, वाराणसी सभी का निवास है। इसी में चन्द्र और सूर्य हैं । देह के समान कोई तीर्थ नहीं। एथ से सरसइ सोवणाह, एथु से गंगासागर । वाराणसि पनाग एथु, से चान्द्रदिवार ॥ खेत्त पिठ उमपिट्ठ, एथु मइ भमित्र समिठ्ठउ । देहासरिस तित्थ, मइ सुण उरण दिउ ॥ दोहाकोश 96-97 जोइन्दु कहते हैं जेहउ हिम्मलु णाममउ, सिद्धिहि रिणवसइ देउ । तेहउ जिवसइ वंभु परु, देहहँ मं करि. भेउ ॥ 1.26 जिस प्रकार निर्मल ज्ञानमय सिद्धगण मुक्ति में निवास करते हैं उसी प्रकार शुद्धबुद्ध स्वभाववाला परब्रह्म इस शरीर में ही निवास करता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भी 'मोक्षपाहुड' में लिखा है रणमि एहि जं गमिज्जइ झाइज्जइ झाएएहि अणवरयं । थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्यं कि पि तं मुणहं ॥ जो नमस्कारयोग्य पुरुषों से भी नमस्कारयोग्य हैं, स्तुति करने योग्य पुरुषों से स्तुति किया गया है और ध्यान करने योग्यों से भी ध्यान करने योग्य है ऐसा परमात्मा इस देह में ही निवास करता है। जोइंदु की मान्यता है कि तीर्थादिकों में भ्रमण करने से, शास्त्र-पुराण का सेवन मात्र करने से अथवा मंदिर-मूर्ति की आराधना करने से प्रात्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती। जिसका मन निर्मल है उसे ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अण्ण जि तित्थु म जाहि जिय, अण्णु जि गुरुउ म सेवि । अण्णु जि देउ म चिति तुहुं, अप्पा विमलु मुएवि ॥ 1.95 हे जीव ! तू दूसरे तीर्थ को मत जा, किसी दूसरे गुरु की सेवा मत कर, विमल प्रात्मा को छोड़कर किसी अन्य देवता का ध्यान मत लगा क्योंकि आत्मा ही तीर्थ है, आत्मा ही गुरु है और आत्मा ही देव है ।

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