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जैनविद्या
हेमचन्द्र ने अपने कालजयी व्याकरण 'सिद्ध हैमशब्दानुशासन' में अपभ्रंश भाषा विषयक आठवें अध्याय में 'परमात्मप्रकाश' के कतिपय दूहे या दोहे उदाहरण के रूप में प्राकलित किये हैं । इससे भी सहज ही यह अनुमान होता है कि जोइंदु कवि श्राचार्य हेमचन्द्र ( 12वीं शती) के पूर्ववर्ती हैं।
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प्रसिद्ध वैयाकरण चण्ड ने भी अपने व्याकरण ग्रन्थ 'प्राकृत - लक्षण' में 'परमात्मप्रकाश' का एक दोहा उद्धृत किया है इसीलिए डॉ. उपाध्ये ने जोइंदु का काल चण्ड से पूर्व सा की छठी शती मानने का ग्राग्रह दिखाया है । महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने तो इनका समय दसवीं शती स्वीकार किया है किन्तु डॉ. हरिवंश कोछड़ ने भाषा की दृष्टि से जोइंदु का समय 8वीं - 9वीं शती के आसपास स्थिर किया है । डॉ. कोछड़ का यह कालनिर्धारण इसलिए यथार्थ के अधिक निकट है कि 'परमात्मप्रकाश' में महाकवि स्वयंभू ( 8वीं, 9वीं शती) द्वारा प्रणीत महार्घ अपभ्रंश महाकाव्य 'पउमचरिउ' की अनेक भाषिक प्रकृतियों और प्रवृत्तियों का अनुसरण परिलक्षित होता है ।
कवि जोइंदु के दो ग्रन्थ सर्वप्रसिद्ध हैं - 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' । यहाँ . मेरी अभीप्सा 'परमात्मप्रकाश' के रचना - वैशिष्ट्य पर प्रकाश निक्षेप करने की है । इस कार्य के लिए मुझे प्राकृत जैनशास्त्र शोध- प्रतिष्ठान, वैशाली से 'परमात्मप्रकाश' की जो प्रति उपलब्ध हुई है, वह श्रीब्रह्मदेव की संस्कृत वृत्ति से समन्वित है । पं. जिनदत्त उपाध्याय के पुत्र पं. कालचन्द्र उपाध्याय ने इसका संशोधन किया है और मराठी में इसके दोहों का भाषार्थ भी प्रस्तुत किया है । यह संस्करण श्री जिनवाणी- प्रसारक शान्तिसागर दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत मालगाँव ( महाराष्ट्र) से सन् 1939 ई. में प्रकाशित और एस. बी. लिथो एण्ड प्रिंटिंग प्रेस, साँगली से श्री बी. एन. कुलकर्णी द्वारा मुद्रित है ।
कवि जोइंदु के 'परमात्मप्रकाश' का वर्ण्य विषय दो महाधिकारों में विभक्त है । प्रथम महाधिकार में 126 दूहे या दोहे हैं और द्वितीय महाधिकार में 219 दोहे | इस प्रकार इस ग्रन्थ में कुल 345 दोहे हैं । 'परमात्मप्रकाश' साधक कवि जोइंदु और उनके प्रबुद्ध शिष्य भट्ट प्रभाकर के संवाद रूप में उपन्यस्त हुआ है । भट्ट प्रभाकर द्वारा पूछे गये आत्मापरमात्मा-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देने के लिए ही जोइंदु ने 'परमात्मप्रकाश' नाम से इस ग्रंथ की रचना की है । प्रथम महाधिकार में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का निरूपण किया गया है । इसी क्रम में विकल परमात्मा और सकल परमात्मा की परिभाषा प्रस्तुत की गई है, साथ ही जीव की स्वशरीरप्रमाणता और द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चय सम्यक्त्व, मिथ्यात्व प्रादि की चर्चा पल्लवित हुई है । द्वितीय महाधिकार में मोक्षस्वरूप, मोक्षफल, मोक्षमार्ग, अभेद रत्नत्रय, समभाव, पाप-पुण्य की समानता और परमसमाधि का वर्णन हुआ है ।
सुबुद्ध शिष्य भट्ट प्रभाकर शुद्ध प्रात्मतत्त्व का परिज्ञान प्राप्त करना चाहता है । इसलिए वह पहले पंच परमेष्ठी को नमस्कार निवेदित करता है फिर अपने गुरु जोइंदु से प्रार्थना करते हुए कहता है