Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 34
________________ 20 जैनविद्या किसी भी वस्तु का स्वभाव कदापि अपरम नहीं होता क्योंकि कोई भी वस्तु कभी भी अपने स्वाभाविक गुण-धर्मों का परित्याग नहीं करती और न ही मूलतः उसमें ऐसा कोई परिवर्तन होता है जिससे उसके सत्व को नकारा जा सके । बहिरात्मा और अन्तरात्मा मूलतः प्रात्मा ही हैं, अपरम भी नहीं हैं, अतः उनका प्रकाश परमप्पयासु में अप्रासंगिक नहीं है । जीव-आत्मा या जीवात्मा के प्रति बंध और मोक्ष का विचार प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों ने अपनी मनीषा के प्रवाह में किया है। यह विचार प्राणिमात्र के लिए अतिशय महत्त्व का है अत: जैनदार्शनिकों ने भी अपनी मनीषा को यहां व्याप्त किया है । उनकी दृष्टि में बंध और मुक्ति के विचार का औचित्य तभी है जब यह माना जाय कि आत्मा स्वतन्त्र है और बंध या मुक्ति की परिस्थिति भी उसकी सहज स्वतन्त्रता का हनन नहीं करती। यहां स्वतन्त्रता का तात्पर्य प्रात्मा के स्वकर्तृत्व से है। जैन दृष्टि यह मानती है कि पदार्थों के परिणमन में परनिमित्तता होने पर भी परकर्तृत्व सर्वथा नहीं है । अत: प्रात्मगत स्वकर्तृत्व की मर्यादा में ही बन्ध और मुक्ति का विचार महत्त्वपूर्ण होता है । बन्ध या मुक्त दोनों ही दशात्रों की अधिकरणिक शरण-स्थली प्रात्मपरिधि ही तो है । क्या बंध अवस्था में प्रात्मा ही बहिरात्मा नहीं कहलाता या बंध से व्यावृत्त होने के प्रयास में रत अन्तरात्मा प्रात्मा नहीं कहलायेगा? तथा मुक्तदशा में पहुंचकर क्या आत्मा ही परमात्मा नहीं होता? . बन्ध और मुक्त ये दोनों ही अवस्थाएं आत्मा में तभी सिद्ध होती हैं जब आत्मा को कर्मसापेक्ष माना जाय । निरपेक्षतया तो आत्मा में न बंध है न मोक्ष । इसलिए जोइन्दु ने कहाप्रात्मा में बंध-मोक्ष को कर्म करता है, प्रात्मा तो मात्र जानता-देखता है (1.65) । कर्म को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं विसय-कसाहि रंगियहं ते अणुया लग्गति । ... जीव पएसहं मोहियहं ते जिण कम्म भणंति ॥ 1.62 अर्थात् विषय-कषायों से रंजित और मोहित जीवों के जीव-प्रदेशों में जो अणु लग जाते हैं जिनेन्द्र उन्हें कर्म कहते हैं। जीव और कर्म दोनों ही अनादि हैं अतः न तो कर्म जीवजनित है और न ही जीव कर्मजनित है । जीवों के साथ कर्म अनादि से हैं अतः जीवों और कर्मों का सम्बन्ध भी अनादि से ही है (1.59) । इस प्रकार प्रात्मा की बंदशा कर्मसापेक्षता में पादिरहित साबित होती है तथापि उसका अन्त संभाव्य है क्योंकि बंध की दशा में भी प्रात्मा कर्म नहीं होता और न ही कर्म प्रात्मा होता है (1.49) । दोनों का ही स्वरूप अस्तित्व सदा अक्षीण बना रहता है । ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मों से बंधकर या नोकर्मरूप शरीर में रहकर भी आत्मा उन सहित अर्थात् सकल-सदेह नहीं होती (1.36) अपितु अनुत्पन्न प्रमरणधर्मा रहकर बंध-मोक्ष को भी नहीं करता (1.68)।

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