Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 39
________________ जनविद्या 25 शिवप्रदमार्ग को भी नहीं माना, पुण्य-पाप को भी दग्ध नहीं किया तथा निजबोध के परिणाम में कर्तव्यभूत घोर तपश्चरण भी नहीं किया तो तेरा संसार कैसे छूटे (2.166-167) ? - जोइन्दु के मत में आत्मा का एक अद्वितीय विशुद्धभाव ही मुक्ति का मार्ग है । वे लिखते हैं-संसारसागर में पतित जीवों को जो चतुर्गतिदुःखों से निकालकर मोक्ष में धरता है ऐसे धर्म को आत्मा का अपना विशुद्धभाव समझकर उसे ही अंगीकार करो । सिद्धि सम्बन्धी पन्थ तो एक विशुद्धभाव ही है जो मुनि उस भाव से विचलित होता है वह विमुक्त कैसे होगा (2.68-69) ? आत्मा का अपना अद्वितीय विशुद्धभाव वस्तुतः अात्मस्थ रत्नत्रय परिणाम ही है अतः "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"6 से जोइन्दु प्रोक्त लक्षण का वैषम्य या विरोध नहीं समझना चाहिये । पुनश्च मुनिराज जोइन्दु स्वयं सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र इन तीनों को मोक्ष का कारण कहकर तीनों को ही प्रात्मा मानने का उपदेश (2.12) देते हैं तथा जो जीव अपनी आत्मा को आत्मा से देखता है अर्थात् आत्मा का श्रद्धान करता है, जानता है और उसमें ही अनुचरण करता है वही जीव मोक्ष का कारण है अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप है (2.13), अपने इस कथन से उपर्युक्त एकता को स्पष्ट भी कर देते हैं । ___उनकी दृष्टि में रत्नत्रय का भक्त वही है जो गुणनिलय प्रात्मा को छोड़कर अन्य किसी को भी ध्येय नहीं बनाता तथा निर्मलरत्नत्रय को ही निज आत्मा मानकर शिवपद का आराधक होता हुआ केवल उसे ही ध्याता है (2.31-32)। प्रात्मज्ञान से बाह्य ज्ञान मोक्ष के लिए कार्यकारी नहीं होता क्योंकि प्रात्मज्ञान बिना तपश्चरणविषयक ज्ञान या तप दुःख का ही कारण होता है। आत्मज्ञान वह है जो मिथ्यात्व रागादि परिणामों से रहित हो, जिससे मिथ्यात्व या रागादि बढ़ते हैं वह आत्मज्ञान नहीं माना जा सकता । क्या रविरश्मियों के सामने भी तमोराग ठहर सकता है । (2.72-76) ? स्वभावतः सभी जीव जन्म-मरण से विमुक्त हैं, ज्ञानमय हैं, जीवप्रदेशों से भी समान हैं तथा सभी प्रात्मीय गुणों से भी एक जैसे ही हैं (2.97) ऐसे समभावनिष्ठ ज्ञान द्वारा जो जीव अपने रागद्वेष का परिहार कर सभी जीवों को समान जानते हैं वे ही जीव समभाव परिनिष्ठित होने के कारण शीघ्र ही निर्वाण को पाते हैं (2.100)। समभावनिष्ठ आत्मज्ञान के बिना वंदन, निन्दन, प्रतिक्रमण या तपश्चरण बेकार है क्योंकि संयम, शील, जप, तप, ज्ञान, दर्शन और कर्मक्षय इत्यादि शुद्धोपयोगसंयुक्त आत्मा में ही होते हैं अतः शुद्धोपयोगरूप ज्ञानमय शुद्धभाव ही प्रधान है (2.67) । इस सन्दर्भ में उनके कथन की स्पष्टता भी देखिये-एक ज्ञानमय शुद्धभाव को छोड़कर वंदन, निन्दन प्रतिक्रमण आदि ज्ञानी को युक्त नहीं है । अथवा वंदना करो, निन्दा करो, प्रतिक्रमण करो इससे

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