Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 37
________________ जैनविद्या इसका अर्थ है - जो जीव अपने कर्मफल को भोगता हुआ मोह से सुन्दर - असुन्दर अर्थात् रागद्वेषरूप भाव करता है वह कर्म को उपजाता है । इस प्रकार मोह के अधिष्ठातृत्व में रागद्वेषपरिणाम बंध के कारण होते हैं । जोइन्दु सुक्ष्मतम राग को भी बन्ध का कारण मानते हैं क्योंकि वे लिखते हैं- परमार्थ अर्थात् निजशुद्धात्म तत्त्व को शंकामात्र से जानकर भी जो जीव जब तक अपने मन में अणुमात्र भी राग करता है तब तक वह कर्मों से मुक्त नहीं होता ( 2.81 ) । उनके अनुसार कर्मफलभोगकाल में राग ही बंध का कारण है कर्मफल अर्थात् कर्मों का उदय नहीं । उनके ही शब्दों में भुंजंतु वि जिय-कम्मफलु जो सो जवि बंधइ कम्मु पुणु 23 तह राउ ण जाइ । संचिउ जेण विलाइ ॥ 2.80 अर्थात् अपने कर्मफल को भोगता हुआ भी जो उनमें राग नहीं करता वह कर्म नहीं बांधता अपितु उसके विराग भाव से संचित कर्म भी विलय / नाश को प्राप्त होते हैं । कर्मोदय काल में भी राग-द्वेष करने से आत्मा कैसे बचे ? इसके उत्तर में जोइन्दु कहते हैं - ज्ञान को छोड़कर आत्मा का अन्य स्वभाव नहीं है इसलिए इस ज्ञान को जानकर पर में राग मत कर (2.155 ) । देह, परिग्रह और इन्द्रियों के विषय-भोगों में राग उत्पन्न न हो इसलिए देह, परिग्रह और इन्द्रिय विषय-भोगों से भिन्न अपने आत्मस्वभाव को जानना चाहिये (2.49–50–51 ) । वस्तुत: आत्मा का ज्ञान या ध्यान ही रागोत्पत्ति के प्रभाव में कारण है । जो जीव संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हुआ आत्मा का ध्यान करता है । . उसका दीर्घ संसार भी नष्ट हो जाता है ( 1.32 ) । आत्मभावना ही संसार के ग्रंत को प्राप्त करती है (1.72 ) । इसके विपरीत आत्मभावना से च्युत संसारी जीव धर्म प्रर्थात् वीतरागता पाने के प्रयत्न में पुण्यकर्म और पापकर्म के भेद को स्वीकार करके मोह के भ्रमजाल में पतित होता है । पुण्य और पाप में कोई भी श्रेष्ठ उत उपयोगी नहीं है । दोनों ही मोह में मशगूल करनेवाले हैं । संसार परिभ्रमण का कारण पुण्य-पाप को समान न माननेवाला मोह ही है । एतदर्थ जोइन्दु का उपदेश है जो गवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोह । सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिँडइ लोइ ॥ 2.55 जो जीव पुण्य और पाप इन दोनों को समान नहीं मानता वह इस मोह से चिरकाल तक दुःख सहता हुआ संसार में घूमता रहता है । पुण्य और पाप के सन्दर्भ में परमप्पयासु की निम्न धारणा ही अनुग्रह के लिए पर्याप्त है— "पाप के फल से जीव दुःख पाता है और दुःख मिटाने के लिए धर्माभिमुख होता है। इसलिए उन पापकर्मों का उदय भी श्रेष्ठ है जो जीव में दुःख उत्पन्न करके शिवमति अर्थात् मोक्ष के उपाय योग्य बुद्धि पैदा कर देता हैं ( 2.56 ) । किन्तु निदान बन्ध से उपार्जित पुण्य 'मला नहीं होता क्योंकि वह जीवों को राज्यादि वैभव प्राप्त कराकर शीघ्र ही उनमें दुःख

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