Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 31
________________ जनविद्या 17 __ अर्थात्, हे मूढ जीव ! शुद्ध जीवात्मा को छोड़ अन्य सभी विषय विनश्वर हैं । तू भ्रम से भूसे को मत कूट । गृह, परिजन आदि की आसक्ति छोड़ निर्मल मोक्षमार्ग से प्रेम कर। ___ यहां 'भूसा कूटना' जैसा व्यर्थताबोधक लोकप्रचलित मुहावरा आवर्जक प्रासंगिक प्रासंग उपस्थिति करता है । इसी प्रकार 'एक म्यान में दो खड्ग देखा सुना न कान' जैसी लोकोक्ति का पुनमूल्यांकन करते हुए युगचेता कवि जोइंदु ने कहा है कि जिसके हृदय में मृगनयनी का निवास है, उसके हृदय में परमात्मा का निवास सम्भव नहीं है । मूल दोहा इस प्रकार है जस हरिणच्छी हियवडए, तस गवि बंभु बियारि । एक्कहिं केम समंति वढ, बे खंडा पडियारि ॥..... 1.121 कवि जोइंदु ने संस्कृत की एक प्रसिद्ध लोकोक्ति 'छिन्ने मूले नैव पत्रं न शाखा' का पुनराख्यान इस प्रकार किया है पंचहं गायकु वसिकरहु, जेण होंति वसि अण्ण । मूल विणट्ठह तस्वरहें, अवसई सुक्कहिं पण्ण । 2.140 अर्थात्, पंचेन्द्रिय के नायक मन को वश में करो। मन को वश में कर लेने पर अन्य सारी इन्द्रियाँ वश में आजाती हैं। मन-रूपी मूल के विनष्ट हो जाने पर इन्द्रियरूपी वृक्ष के पत्ते अवश्य ही सूख जाते हैं। : __ शास्त्रदीक्षित अधीती कवि जोइंदु पर 'गीता' 'का प्रभूत प्रभाव पड़ा है । तुलनात्मक अध्ययन के लिए केवल दो दोहे द्रष्टव्य हैं जा णिसि सयलहें देहियह, जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । जहिं पुणु जग्गइ सयल जगु, सा गिसि मणिवि सुवेइ। 2.46 (1) या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागत्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः । गीता, 2.69 जिण्णिं वत्थि जेम बुहु, देहु न मण्णइ जिण्ण । देहि जिण्णिं णाणि तह, अप्पु ण मण्णइ जिष्णु । 2.179 वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही । गीता, 2,22

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