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जनविद्या
को स्वात्मतत्त्व से जोड़नेवाले ज्ञानी ही उसे ठीक-ठीक पहचानते हैं । आत्मा पण्डित भी नहीं होता, मूर्ख भी नहीं, वह ईश भी नहीं होता, अकिंचन भी नही, वह तरुण, बालक, बूढा कुछ भी नहीं होता, अकिंचन भी नहीं होता । व्यवहारनय से जीव-स्वभाव को जानकर उसे शुद्धनय से शुद्धात्म द्रव्य से भिन्न स्वात्मा में नियोजित करनेवाले ज्ञानी ही उसके सही रूप को जानते हैं । आत्मा न पुण्य है, न पाप, न धर्म है, न अधर्म । सभी आत्मा चेतन हैं। चेतना भाव के बिना कोई आत्मा सम्भव नहीं। (1.86-93)
जोइन्दु कवि द्वारा विवेचित आत्मा-परमात्मा की परिभाषा से सन्तुष्ट होने के बाद भट्ट प्रभाकर ने उनसे मोक्ष के स्वरूप-निरूपण की प्रार्थना की-“हे श्री गुरु, मुझे मोक्ष, मोक्ष के कारणभूत तथ्य तथा मोक्षसम्बन्धी जो फल है, उसे बताइए, ताकि मैं परमार्थ को जान सकू ।" (2.126)
भट्ट प्रभाकर की मोक्ष-विषयक जिज्ञासा जानकर जोइन्दु ने कहा
तीनों लोक में मोक्ष के सिवा जीवों के सुख का कोई दूसरा कारण नहीं है इसलिए मोक्ष की चिन्ता करनी चाहिए । वीतराग साधु कहते हैं, कर्म-कलंक से विमुक्त जीवों का परमात्मलाभ ही मोक्ष है । त्रुटिरहित अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तसुख से दूसरा कोई शाश्वत मोक्षफल नहीं है। (2.135-136)
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही जीवों का मोक्ष हेतु है । इन तीनों को अभेदनय से प्रात्मा जानो । अभेदात्मक रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा ही मोक्षमार्ग है । जो स्वयं अपनी आत्मा को देखता है, जानता है और आचरण करता है, अर्थात् राग आदि समस्त विकल्पों का त्याग करके अपने स्वरूप में स्थिर होता है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप रत्नत्रय में, परिणत वही जीव या पुरुष स्वयं मोक्षमार्ग हो जाता है, इस प्रकार रत्नत्रय ही मोक्ष का कारण है। (1.138-139)
कहना न होगा कि जोइंदु ने 'परमात्मप्रकाश' में लोकोक्तिसिक्त हिन्दी की समानान्तर अपभ्रंश भाषा में निबद्ध सरल मनोहर दोहों में जैनागमों में प्रतिपादित आत्मोन्नयनकारी धर्म, दर्शन और आचार के समस्त सारभूत तथ्यों को पुनराख्यापित करके उन्हें सर्वजनसुलभ बनाने का प्राचार्योचित आदर्श कार्य किया है। दूसरे शब्दों में, जोइंदु ने ऊँचे आध्यात्मिक तथ्यों को सर्वसुगम भाषा में सामान्य से सामान्य जन तक पहुंचाने का श्लाघनीय राष्ट्रीय कार्य किया है।
जोइंदु ने अपने दोहों की रचना में लोकोक्तियां और वाग्धाराओं (मुहावरों) का विनिवेश आध्यात्मिक तत्त्वों को सर्वजनबोध्य बनाने की दृष्टि से ही किया है। दो एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं
मूढा सयलु वि कारिमउ, भुल्लउ मं तुस कंडि । सिव-पहि रिणम्मलि करहि रइ, घर परियण लहु छडि। 2.128