Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ जनविद्या जोइन्दु का मन्तव्य स्पष्ट है कि कर्म के निमित्त से जीव बस-स्थावर रूप में, स्त्रीपुरुष-नपुंसक लिंगादि चिह्नोंसहित अनन्तकाल से अनन्त योनियों में भवभ्रमण करता रहता है, यथा जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ । लिगंत्तय परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ।। प. प्र. 1.40 उसे अपने अन्तस् में छिपी परमात्म-शक्ति का बोध ही नहीं रहता है। वह तो अनेक प्रकार के रागादि विकल्पों में जीता-मरता है । जोइन्दु इस जीव पर पड़े हुए कर्म-आवरण जो परमात्मा बनने में घातक/बाधक हैं, को हटाने हेतु दोनों प्रकार के तप-बाह्य और प्राभ्यन्तर तथा दो प्रकार के ध्यान-धर्म्य और शुक्ल की सम्यक् साधना-आराधना पर बल देते हैं । यथा झाणे कम्मक्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु । जिणवरदेवई सो जि जिय पणिउ सिद्धमहतु ।। प. प्र.2.201 इनके द्वारा संसारी जीव अपने कर्मों का परिणमन कर निर्जरा कर सकता है, कर्मप्रास्रव रोक सकता है और अन्तत: सर्वप्रकार के कर्मजाल से सर्वथा मुक्त हो सकता है अर्थात् यह जीव वीतराग, निर्विकल्प, परमानन्द, समरसी भावों से युक्त अनन्त चतुष्टय से संयुक्त अपने ही स्वरूप स्वभाव में स्थित हो सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132