Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 24
________________ 10 जनविद्या जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो परभाउ ण लेइ । जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ॥ प.प्र., 1.18 जोइन्दु का परमात्मा दो प्रकार से जाना जा सकता है-एक कारणरूप में तथा दूसरा कार्यरूप में । कारणरूप में परमात्मा वह है जो व्यवहार नय से देहरूपी देवालय में बसता है, पर निश्चय से देह से भिन्न है, आराध्यदेव स्वरूप है, अनादि-अनन्त है, केवलज्ञान स्वरूपी है, निःसन्देह वह प्रचलित पारिणामिक भाव है । यथा देहादेवलि जो वसइ देउ प्रणाइ अणंतु । केवल-णाण-फुरंतु-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥ प. प्र. 1.33 कारण परमात्मा देशकालावच्छिन्न शुद्ध चेतन सामान्य तत्त्व है जो मुक्त व संसारी तथा चींटी व मनुष्य सब जीवों में अन्वयरूप से पाया जाता है । कार्य परमात्मा वह है जो अष्ट कर्मों को नष्ट करके तथा देहादि सब परद्रव्यों को छोड़कर केवलज्ञानमयी-दर्शनमयी है जिसका केवल सुख स्वभाव है जो अनन्तवीर्यवाला है। इन लक्षणों सहित सबसे उत्कृष्ट निःशरीरी व निराकार देव जो परमात्मा/सिद्ध है जो तीनों लोक का ध्येय है, वही इस लोक के शिखर पर विराजमान है अर्थात् कार्य परमात्मा वह मुक्तात्मा है जो पहले संसारी था, पीछे कर्म काटकर मुक्त हुआ, यथा अप्पा लद्धउ गाणमउ कम्म-विमुक्के जेण । मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो पर मुणहि मणेण ॥ .................... .. . एयहि जुत्तउ लक्खाहं जो पर णिक्कलु देउ । सो तहि णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ भेउ ॥ प. प्र., 1.15-25 इस प्रकार कारण परमात्मा अनादि व कार्य परमात्मा सादि होता है। जोइन्दु परमात्मा के दो भेद करते हैं-एक सकल परमात्मा तथा दसरा निष्कल परमात्मा । सकल परमात्मा अरहन्त तथा निष्कल परमात्मा सिद्ध कहलाते हैं । अरहन्त सशरीरी होते हैं जबकि सिद्ध अशरीरी निराकार होते हैं । जब संसारी जीव चार घातिया कर्मों (जीवों के अनुजीवी गुणों के घात करने में निमित्त)-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय का नाश कर लेता है तब अरहन्त पद पर प्रतिष्ठापित हो जाता है । जब यही जीव शेष चार अघातिया कर्मों (जीवों के अनुजीवी गुणों में घात करने में निमित्त न हों)-नाम, गोत्र, आयु, वेदनीय का भी नाश कर लेता है तो सिद्ध परमेष्ठी बन जाता है, यथा केवल दंसण-णाणमउ केवल सुक्ख-सहाउ । केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावर भाऊ॥ प. प्र., 1.24

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