Book Title: Jain Vidya 09
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 25
________________ जनविद्या 11 सयल-वियप्पहँ तुट्टाहं सिव-पय मग्गि वसन्तु। कम्म-चउक्कइ विलउ गइ अप्पा हुइ अरहन्तु ॥ केवलणाणि प्रणवरउ लोयालोउमुणंतु । णियमें परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहन्तु ॥ प. प्र., 2.195-96 अरहन्त परमात्मा केवलज्ञानस्वाभावी होने से एक ही समय में समस्त लोकालोक को प्रत्यक्षरूप से जाननेवाले तथा मात्र घातिया कर्मों का नाश करनेवाले, अठारह दोषों से रहित, छियालीस गुणों से युक्त होते हैं। सिद्ध भगवान् क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व नामक अष्ट गुणों से मंडित, समस्त घाति-अघाति कर्मों से विरत तथा लोक के अग्रभाग पर विराजमान होते हैं। जोइन्दु परमात्मा के स्वरूप को विस्तार से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो पांच प्रकार के शरीर (ौदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस तथा कार्मण), पांच प्रकार के वर्ण (श्वेत, नील, कृष्ण, लाल और पीला), दो प्रकार की गंध (दुर्गन्ध-सुगन्ध), पांच रस (मधुर, आम्ल, तिक्त, कटु एवं कषाय), शब्द (भाषा-अभाषारूप, सचित्त-अचित्त मिश्ररूप, सातस्वर), आठ तरह के स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, गुरु, लघु, मृदु और कठिन), पांच आस्रव (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग), क्षुधादि अठारह दोषों से रहित इन्द्रियातीत तथा जिसके ध्यान के स्थान नाभि, हृदय, मस्तिष्क आदि नहीं है और जो जन्म-जरा-मृत्यु से सर्वथा मुक्त, चिदानन्द, शुद्धस्वभावी, अक्षय, निरंजन-निराकार है, वह परमात्मा है। यथा जासु ण वण्णु गंधु रसु जासु ण सद्ध ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु ण वि गाउ रिणरंजणु तासु ॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु रण माय रण माणु । जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥ अस्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि रण हरिसु विसाउ । अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाऊ । प. प्र., 1.19-21 उस परमात्मा के कुंभक, पूरक, रेचक नामवाली वायुधारणादिक नहीं है । वह प्रतिमादि ध्यान करने योग्य पदार्थ भी नहीं है, अक्षरों की रचनारूप स्तंभन, मोहन आदि विषय यंत्र नहीं है, अनेक तरह के अक्षरों के बोलने रूप मंत्र नहीं है, महामण्डल, वायुमण्डल, अग्निमण्डल, पृथ्वीमंडल आदि पवन के भेद नहीं है, गारुड़मुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि मुद्राएं नहीं हैं, वह तो द्रव्याथिक नय से अविनाशी तथा अनन्त ज्ञानादि गुणरूप से सम्पृक्त है, यथा जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु । जासु ण मंडल मुद्द वि सो मुणि देउं अणंतु ।। प.प्र., 1.22

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