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जैनविधा
'परमात्मप्रकाश' ज्ञानगरिष्ठ और विचारप्रधान है। इसमें कुल 345 पद्य हैं-प्रथम अधिकार में 126 और द्वितीय अधिकार में 219 हैं जिनमें 5 गाथाएं, 1 स्रग्धरा, 1 मालिनी, 1 चतुष्पदिका और शेष सभी दोहे हैं । पुनरुक्ति होते हुए भी इस ग्रन्थ का विषय विशृंखल नहीं हैं। 'परमात्मप्रकाश' के टीकाकार ब्रह्मदेव कहते हैं-"अत्र भावनाग्रन्थे समाधिशतकवत् पुनरुक्तदूषणं नास्ति ।" परमात्मप्रकाश पर ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका और पंडित दौलतराम की हिन्दी टीका महत्त्वपूर्ण है ।14 काव्यकार जोइन्दु की स्वानुभूति है कि इस महनीय कृति के सम्यक् पारायण से मोहमुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है ।
वस्तुतः 'परमात्मप्रकाश' कविश्री जोइन्दु के चिंतन की चिन्तामणि है और है अनुभूति का प्रागार । जिस प्रकार प्रातःस्मरणीय श्री कुंदकुंदाचार्य की प्रसिद्ध नाटकत्रयी है उसी प्रकार यह भी अध्यात्म विषय की परम सीमा है।
जोगसारु (योगसार)
कविश्री जोइन्दु की दूसरी रचना 'योगसार' है जो कि 'परमात्मप्रकाश' की अपेक्षा . अधिक सरल और मुक्त रचना है । विषय विवेचन में क्रमबद्धता का अभाव है । अपभ्रंश का यह ग्रन्थ वस्तुतः 'परमात्मप्रकाश' के विचारों का अनुवर्तन है जो सुबोध और काव्योचित ढंग से वर्णित है। 108 छंदों की इस लघु रचना में दोहों के अतिरिक्त एक चौथाई और दो सोरठों का भी निर्वाह हुआ है।
---- 'योगसार' में कविश्री ने अध्यात्मचर्चा की गूढ़ता को बड़ी ही सरलता से व्यंजित किया है जिनमें उनके सूक्ष्मज्ञान एवं अद्भुत अनुभूति का परिचय मिलता है । जब आत्मज्ञान तथा अनुभवसाक्षिक ज्ञान ही सर्वोपरि है तो वह सबके बूते की बात हो सकती है । यह अनुभवसाक्षिक ज्ञान इसी देह और मन से सम्भव है। इसलिए देह और मन उपेक्षणीय वस्तु नहीं है। यही कारण है कि कविश्री ने धर्मोपदेशकों द्वारा अपवित्र कही जानेवाली देह को देवल अथवा देवमंदिर की गरिमा प्रदान की । यथा
देहा-देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं रिणएइ ।
हासउ महु पडिहाइ इहु सिद्धे भिक्ख भमेइ ॥430 अर्थात् देव न देवालय में है, न तीर्थों में, यह तो शरीररूपी देवालय में है, यह निश्चय से जान लेना चाहिए। जो व्यक्ति शरीर के बाहर अन्य देवालयों में देव तलाश करते हैं उन्हें देखकर हंसी आती है ।
इस प्रकार जोइन्दु की उक्त दोनों कृतियों में रूढ़ि-विरोधी नवोन्मेष की अभिव्यक्ति है । मानवता की सामान्य भावभूमि पर खड़े होने के कारण ही इनका अन्य मतों से कोई विरोध नहीं है। ये सबके प्रति सहिष्णु हैं, इनका विश्वास है कि सभी मत एक ही दिशा की ओर ले जाते हैं और एक ही परमतत्त्व को विविध नामों से पुकारते हैं । यथा