Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा-क्म का पराक्रम
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का भरपूर अवसर देना । इसके अतिरिक्त सिहरथ को बन्दी बनाकर मेरे पास लाना, सीधे जाकर जरासघ को मत सौप देना ।
समुद्रविजय की चेतावनी वसुदेव कुमार ने हृदयगम की और सिहपुर की ओर चल दिये ।
राजा मिहरथ ने जैसे ही मुना कि वसुदेव कुमार युद्ध हेतु आये है, वह भी सेना सहित नगर से बाहर निकल आया ।
दोनो ओर की सेनाओ मे युद्ध होने लगा । कस वसुदेव का सारथी था । सिहरथ और वमुदेव मे भयकर युद्ध हुआ । दोनो में से कोई भी पीछे नही हटता था । जय-पराजय का निर्णय नही हो पा रहा था ।
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एकाएक कस रथ पर से कूदा और गदा
रथ भग कर दिया । सिहरय कस को मारने के
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प्रहार से सिहरथ का
लिए तलवार निकाल
कर दौड़ा तो वसुदेव ने अपने क्षुरप्र वाण से उसका तलवार वाला हाथ छेद दिया । छलकपट से निपुण कस ने सिहरथ को अचानक ही उठाया और वसुदेव के रथ मे फेक दिया ।
राजा के गिरते ही सेना शात हो गई । वसुदेव विजयी हुए । मिहरथ को वन्दी बनाकर वे अपने नगर शौर्यपुर आ पहुँचे । अग्रज समुद्रविजय ने विजयी अनुज वसुदेव को कठ से लगा लिया ।
अनुज वसुदेव को एकान्त मे ले जाकर समुद्र कहने लगे
- वसुदेव ! मेरी बात ध्यान से सुनो। कोप्टुकी नाम के ज्ञानी ने एक बार मुझसे कहा था कि ' जरासंध की पुत्री जीवयशा कनिष्ठ -लक्षणो वाली होने के कारण पति और पिता दोनो कुलो का नाश करने वाली है।' इसलिए उसके साथ तुम्हारा विवाह नही होना चाहिए।
अव कुमार वसुदेव को अग्रज की चिन्ता का कारण समझ मे आया । जव जरासध के दूत ने 'जीवयगा' देने की बात कही थी तभी तो उनके मुख पर चिन्ता की रेखा खिच आई थी । वसुदेव ने पूछा- तात । अब क्या हो ? इस जीवयगा से कैसे छुटकारा मिले ?
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