Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला भाग ३१
एक पीपल के वृक्ष के नीचे छोडा और चल दिये मुलसा को साथ लेकर दूसरे स्थान को। ___ सुभद्रा सन्यासी याजवल्क्य की इस करतूत मे अनभिज्ञ नही थी। उसने पुत्र को पीपल के वृक्ष के नीचे से उठाया और उसे पालने लगी। नाम रखा पिप्पलाद और उसे वेद-वेदाग का प्रकाड विद्वान वना दिया। उसकी ख्याति सुनकर वाद हेतु सुलसा और यानवल्क्य भी आये। पिप्पलाद ने उन्हे पराजित कर दिया ।। ___ जव उसे मालूम हुआ कि 'यही दोनो मेरे माता-पिता है तो उसे बहुत क्रोध आया । क्रोध को प्रचड अग्नि मे झुलसते हुए उसने मातृमेघ और पितृमेघ यज्ञ का प्रचार किया और सुलसा तथा याजवल्क्य को यज्ञाग्नि मे स्वाहा कर दिया।
देव ने विद्याधरो को सवोधित करके कहा-उस समय मैं पिप्पलाद का शिष्य था और मेरा नाथ था वाग्वलि | उन यज्ञो की अनुमोदना
और सहायक होने के कारण मैंने नरक के घोर कष्ट झेले। वहाँ से निकला तो टकण देश मे मेढा हुआ। जव रुद्रदत्त ने मुझे मारा तब इसी चारुदत्त ने मुझे नवकार मन्त्र सुनाया जिसके प्रभाव से मुझे देव पर्याय की प्राप्ति हुई । परम कल्याणकारी अहिंसा धर्म में रुचि जगाने वाला यह चारुदत्त मेरा धर्मगुरु है। इसी कारण मैंने प्रथम इसे नमस्कार किया।
यह सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर विद्याधर वोले
-चारुदत्त तो हमारा भी उपकारी है । हमारे पिता को भी एक वार इसने बन्धनमुक्त किया था ।
सेठ चारुदत्त कुमार वसुदेव को सवोधित करके कहने लगा-इसके बाद देव ने मुझसे पूछा
-भद्र । मैं आपकी क्या सेवा करूं?
तव मैंने उसे यह कह कर विदा कर दिया--'योग्य समय पर आना।' देव अन्तर्धान हो गया और विद्याधर मुझे अपने नगर शिवमदिर मे ले गये। वहाँ उन्होने मुझे वडे सत्कारपूर्वक बहुत दिन तक