Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 346
________________ जैन कथामाला भाग ३३ -कैसे पति हो तुम, जो पत्नी की सेवा करते हो ? -स्वामी ! वह आपकी पुत्री है, उसे तनिक भी कप्ट न हा यह देखना मेरा कर्तव्य है। -नही, वह तुम्हारी पत्नी है। उससे सेवा लेना ही तुम्हारा कर्तव्य है । यदि तुम कर्तव्यच्युत हुए तो घोर दण्ड के भागी होगे। श्रीकृष्ण के ये शब्द सुनकर वीरक भय से कॉप उठा । वह समझ गया कि मुझे क्या करना है । घर आकर उसने केतुमंजरी को गृहकार्य करने की आज्ञा दी। पति का आदेशात्मक स्वर केतुमजरी के लिए अनोखी घटना थी। उसने एक वार गौर से देखा उसके चेहरे पर और ऑखे निकाल कर कहने लगी -गायद तुम भूल गए हो कि मैं वासुदेव की पुत्री हूँ । मुझे आदेश देने का अर्थ है मेरा अपमान । अपनी मर्यादा का ध्यान रखो। __-अपनी मर्यादा का ही ध्यान आ गया है आज, मुझे। तुम मेरी पत्नी हो । पत्नीधर्म का पालन करते हुए मेरी सेवा करो। -तुम्हारी सेवा और मैं करूं यह असम्भव है। .. --तुम्हे करनी ही पडेगी। -~-नही करूंगी। वात बढ गई। वीरक ने केतुमजरी को पीट दिया। वह भाग कर अपने पिता के पास गई और करने लगी वीरक की शिकायत ? कृष्ण ने टका-सा उत्तर दे दिया --मैं क्या करूं ? पत्नीधर्म का पालन नही करोगी तो दण्ड पाओगी ही। इसीलिये तो मैंने तुमसे पहले पूछा था स्वामिनी बनोगी या दासी । दासी बनोगी तो सेवा तो करनी ही पडेगी। केतुमजरी की ऑखे खुल गई । पिता के चरणो पर गिरकर वोली___-मैने माताजी के कहने से भूल की। अव मै स्वामिनी वनना - चाहती हूँ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373