Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 347
________________ श्रीकृष्ण-क्या-कुछ प्रेरक प्रसग ३१६ उसके अत्यधिक आग्रह पर कृष्ण ने वीरक को समझाया और केतुमजरी भगवान अरिष्टनेमि के पास प्रबजित हो गई। ___ एक बार कृष्ण वासुदेव भगवान अरिष्टनेनि की धर्मसभा मे गए। वहाँ साधु मण्डली को देखकर विचार आया-'आज सभी सन्तो का विधिपूर्वक वदन करूं।' सभी सन्तो को अनुक्रम में भाव वन्दन करने लगे । देखादेखी वीरक ने भी उनका अनुकरण किया। १८००० सन्तो की वदना के पश्चात बैठे तो भगवान से विनम्र स्वर मे पूछा___-प्रभो । मैंने जीवन मे ३६० सग्राम किए है किन्तु कभी ऐसा श्रम नहीं हुआ जैसा आज । भगवान ने बताया -वासुदेव अन्य सग्रामो मे तो तुम वाह्य शत्रुओ से लडे थे और इस समय आन्तरिक शत्रुओ से । कृष्ण वात का रहस्य न समझ पाए तो भगवान ने स्पष्ट किया -सतसमाज के भाववन्दन से तुमने सातवी भूमि का वधन तोडकर तीसरी का कर लिया है, सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है और तीर्थकर प्रकृति का बन्ध हुआ । कर्मप्रकृतियो के वधन तोडने के कारण ही तुम्हे अधिक श्रम हुआ है। उत्सुकतावग कृष्ण ने पूछ लिया-~और इस वीरक को ? -~-इसने तो कायक्लेश ही किया। तुम्हे प्रसन्न करने हेतु इसने द्रव्यवदन किया और द्रव्यवदन से काया-कप्ट ही होता है। प्रभु ने फरमाया। [२] शाम्न और पालक शाम्ब और पालक दोनो ही कृष्ण के पुत्र थे। एक दिन वासुदेव ने कहा-जो भी कल प्रात भगवान को पहले वन्दन करेगा उसे मुंहमॉगा पुरस्कार मिलेगा।

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