Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 357
________________ श्रीकृष्ण-कया-द्वारका-दाह ३२६ पास रहूँगा और न भातृ-हत्या मेरे हाथ से होगी। यह निश्चय करके उसने धनुप-वाण लिए और सर्वज्ञ की वाणी को अन्यथा करने हेतु वन की ओर चला गया । __ वासुदेव भी धर्मसभा से उठे और नगर मे आकर मद्यपान का सर्वथा निषेध कर दिया। राजाज्ञा से लोगो ने समस्त मदिरा कदव वन की कादवरी गुफा मे प्रकृति-निर्मित शिलाकुडो मे फेक दी । नगर मे मदिरापान वन्द हो गया और प्रजा धर्मनिष्ठ जीवन विताने लगी। द्वीपायन को भी कर्ण-परपरा से भगवान की भविष्यवाणी ज्ञात हुई तो वह द्वारका की रक्षा के निमित्त नगर के बाहर आकर तपस्या करने लगा। प्रभु की देशना सुनकर वलभद्र का सिद्धार्थ नाम का सारथी प्रबुद्ध हुआ। उसने वलभद्र से विनती की - स्वामी । अब मुझे आजा दीजिए, मैं सयम ग्रहण करना चाहता हूँ। बलभद्र ने उसे स्वीकृति देते हुए कहा -सिद्धार्थ | तुम मेरे सारथी ही नहीं, भाई जैसे हो। तुमने प्रबजित होने की वात कही मो रोकूँगा नही । यदि तुम देव बन जाओ और मै कदाचित कभी मार्ग-भ्रष्ट हो जाऊँ तो भाई के समान मुझे प्रतिवोध अवश्य देना। सिद्धार्थ ने स्वामी की इच्छा शिरोधार्य की और प्रवजित होकर छह मास तक तपस्या करके स्वर्ग गया । शिलाकुडो मे पडी-पडी मदिरा अधिक नशीली भी हो गई और स्वादिष्ट भी। एक बार वैशाख की गर्मी में प्यास से व्याकुल यादवकमारो के किसी सेवक ने उसे पी लिया । उत्कृष्ट स्वाद से लालायित होकर एक पात्र भरकर वह उनके पास लाया। यादवकुमारो ने पूछा -ऐसी उत्तम मदिरा तुझे कहाँ से मिल गई ? द्वारका मे तो मद्यपान निषिद्ध है।

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