Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कया-द्वारका-दाह
-शात | गात !! तपस्वी शात होइये । क्रोध रूपी राक्षस जीवन भर की तपस्या को नष्ट कर डालता है।
-वह तो नष्ट हो ही चुकी, कृष्ण | मैंने द्वारका-नाश का निदान कर लिया है।
-अव भी समय है। आलोचना करके निदान को मिथ्या कर डालिए। -कृष्ण ने विनम्र स्वर मे कहा । ___-- नहीं । अब यह नहीं हो सकता। गात-तपस्वी की क्रोधाग्नि किस प्रकार प्रलय के अगारे बनकर वरसती है, यह द्वारका अवश्य देखेगी!-तपस्वी द्वीपायन की आँखो से अगारे बरस रहे थे।
कृष्ण कुछ बोलना ही चाहते थे कि बलभद्र ने रोककर कहा
~वासुदेव । क्या तुम सर्वज्ञ भगवान अरिष्टनेमि के गन्दो को मिथ्या करना चाहते हो। यह न त्रिकाल में हुआ है और न होगा।
श्रीकृष्ण जैसे मिथ्या मोह से जागे । होनी के सम्मुख उन्होने सिर झुका दिया और खिन्न मन वहाँ से चले आये ।। - द्वीपायन तपस्वी मरकर अग्निकुमार देवो मे उत्पन्न हुआ। पूर्वभव की शत्रुता का स्मरण करके तुरन्त द्वारका आया किन्तु नगरवासी 'छट्टम, अट्ठम तप आदि अनेक धार्मिक क्रियाओ मे लीन रहते थे इसलिए वह कुछ न कर सका। अवसर की खोज मे वह ११ वर्ष तक प्रतीक्षा करता रहा।
इधर शनैः शनै द्वारकावासी भी धर्मपालन मे गियिल होते गए। उन्होंने भदयाभक्ष्य मेवन प्रारम्भ कर दिया। उन्हें विश्वास हो गया कि अव द्वीपायन कुछ नही विगाड सकता। इस मिथ्या विश्वास के कारण वे लोग आमोद-प्रमोद मे लीन हो गए। मद्यपान तथा मासाहार भी करने लगे। · अग्निकुमार देव द्वीपायन तो इसी प्रतीक्षा मे था। उसने उत्पात करना प्रारभ कर दिया। सवर्त वायु के प्रयोग से वन का काष्ठ, घास आदि द्वारका में एकत्र हो गया। तभी अगारे बरसे और द्वारका जलने लगी। श्रीकृष्ण के अस्त्र-शस्त्र और दिव्य वस्त्र तक जल गए। नगर