Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 349
________________ ३२१ श्रीकृष्ण-कथा-कुछ प्रेरक प्रसग -आप जैसे त्रैलोक्यनाथ का शिष्य और वासुदेव जैसे त्रिखण्डाधिपति का पुत्र होते हुए भी उसे भिक्षा नही मिलती जबकि द्वारका में अनेक उदार गृहस्थ है और वे सदैव साधुओ को भिक्षा देने के लिए उत्सुक रहते है। भगवान ने बताया -यह सव होते हुए भी कर्म का उदय प्रवल होता है। पूर्वजन्म मे जब यह मगधदेश मे धान्यपूरक गाँव मे पारासर नाम का ब्राह्मण था तो राजा की भूमि मे खेती करवाता था। उस समय भोजन की बेला होने पर भी यह उनको खाने का अवकाश नही देता था । जिन लोगो का भोजन आ भी जाता था उन्हे भी वहाँ न खाने देता। जब मनुष्यो के साथ इसका ऐसा व्यवहार था तो पशुओ के साथ तो और भी बुरा । उन्हे तो एक-एक मास तक भूखा रखता । इस प्रकार इसने लाभान्तराय कर्म का तीव्र वन्ध -कर लिया और अब उसके उदय के कारण इसे निर्दोष भिक्षा नहीं मिलती। यह सुनकर ढढण मुनि को वडा पश्चात्ताप हुआ । उन्होने और भी कठोर अभिग्रह लिया-'आज से मैं पर-लब्धि से प्राप्त भोजन ग्रहण नहीं करूंगा।' ___ इस अभिग्रह का पालन करते हुए कितने ही दिन गुजर गए। न उन्हे निर्दोप भिक्षा मिली और न उन्होने ग्रहण की। ___ एक दिन गजारूढ कृष्ण नगरी मे प्रवेश कर रहे थे। सामने से भिक्षा की गवेपणा करते हुए ढढण मुनि दिखाई पड़े। वासुदेव ने गज से नीचे उतर कर मुनि को वन्दन किया । वासुदेव अपने महल मे चले गए और मुनि नगर मे । यह दृश्य अपने भवन के गवाक्ष मे से एक सेठ देख रहा था। उसने सोचा-'यह मुनि अवश्य ही श्रीप्ठ तपस्वी है, तभी तो वासुदेव ने स्वय हाथी से उतर कर इनकी वन्दना की।' ज्यो ही मुनि ने उस सेठ के घर मे भिक्षार्थ प्रवेश किया त्यो ही

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