Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण - कथा - देवी का वचन
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का सेवन करो । उसका फल अचिन्त्य है । चित्त को शांति मिलेगी और लोक-परलोक सुधरेगा । इस लोक मे मान-सम्मान और यश की प्राप्ति होगी तथा जीवनोपरात मुक्ति ।
दोनो नये तापसो ने रुचिपूर्वक जैनधर्म अगीकार कर लिया ।
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तापसो की बात सुनकर वसुदेव के हृदय मे भी श्रावस्ती नरेश एणीपुत्र को देखने की इच्छा जाग्रत हुई । एक पराक्रमी दूसरे पराक्रमी से मिलना चाहता ही है । वसुदेव भी श्रावस्ती नगरी जा पहुँचे । वहाँ उद्यान मे एक तीन द्वारो वाला देवगृह दिखाई दिया । उसका मुख्य द्वार वत्तीस अर्गलाओ (सॉकलो, जजीरो) से आवेष्टित था अत उसमे से तो प्रवेश करना असंभव ही था अत वे दूसरे छोटे द्वार से अन्दर गये । अन्दर जाते ही उन्हे देवमूर्ति तो कोई दिखाई नही पडी । हाँ, तीन मूर्तियाँ अवश्य वहाँ थी - एक मुनि की, दूसरी श्रावक की और तीसरी एक तीन पैर वाले पाडे (भेस के बच्चे ) की ।
वसुदेव इन मूर्तियो का रहस्य नही समझ पाये । उन्होने एक ब्राह्मण से पूछा - इसका रहस्य क्या है ?
ब्राह्मण ने बताया
पहले यहाँ जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था । उसका पुत्र था मृगध्वज । नगर में एक श्रेष्ठो था कामदेव
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श्रेष्ठि कामदेव एक वार नगर के बाहर अपनी पशुशाला मे गया । वहाँ दडक नाम के ग्वाले ने कहा
- सेठजी ! आपकी इस भैस (महिपी) के पाँच पाड़े में पहले ही मार चुका हूँ किन्तु यह छठा पाडा भद्र स्वरूपी है । जव से उत्पन्न हुआ है भय से काँपता रहता है । इस कारण मैंने मारा नही है । आप भी इसे अभय दीजिए ।
दया करके सेठ कामदेव उसे नगरी मे ले आया और राजा से अभय की याचना की । राजा जितशत्रु ने अभय देते हुए आज्ञा दी -