Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला भाग ३२ द्वारका नगरी को दूर से ही देखकर रुक्मिणी चकित रह गई । ऐसी समृद्ध और सुन्दर नगरी उसने जीवन में पहती वार देखी थी। तभी कृष्ण ने कहा
-हे देवी । यह सुन्दर नगरी देव-निर्मित है । इसमे सुखपूर्वक मेरे साथ रहो। __ रुक्मिणी मे हृदय मे हीन भावना उत्पन्न हो आई। उसने नीचा मुख करके कहा___-नाथ ! आपकी अन्य स्त्रियाँ तो उनके पिताओ ने बडी समृद्धि के साथ दी होगी और मै अकेली वंदी के समान आपके साथ आ गई हूँ।
श्रीकृष्ण ने उसकी नारी-सहज भावना को समझा। आश्वासन देते हुए बोले
-कैदी क्यो ? महारानी के समान आई हो। और यदि बदी भी हो तो मेरे हृदय की ।-यह कहकर वासुदेव कृष्ण हँस पड़े। रुक्मिणी आँखो मे आनन्दाथ भर आए । बोली-~
--मेरा अहोभाग्य कि चरणदासी को हृदय मे स्थान मिला। स्वामी | कुछ ऐसा करिए कि लौकिक दृष्टि से मेरा अपमान न हो।
वासुदेव ने कहा-'ऐसा ही होगा।'
तव तक रथ द्वारका में प्रवेग कर च का था। श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी को सत्यभामा के महल के समीप ही दूसरे महल मे ठहरा दिया और गाधर्व विवाह करके क्रीडा करने लगे।
सत्यभामा के हृदय मे रुक्मिणी को देखने की सहज जिज्ञासा थी। वह जानना चाहती थी कि रुक्मिणी मे ऐसी क्या विपता है जिसके कारण वासुदेव उसमे इतने अनुरक्त रहते है ।
इस जिज्ञासा को और भी बढा दिया--'रुक्मिणी के महल मे प्रवेश की निषेधाजा ने।' विना वासुदेव की आना के उस महल मे कोई प्रवेश नहीं कर सकता था।