Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सत्यमुनि ने उपशान्त भाव से प्रश्न किया
-ब्राह्मणो | तुम किस भव से इस मनुष्य जन्म मे आए हो? यह बताओ?
प्रश्न सुनते अग्निभूति और वायुभूति के चेहरे उतर गए। क्या उत्तर दे ? कुछ सूझ ही नही पडा ? लज्जावश दोनो का मुख नीचा हो गया।
उपस्थितजन प्रतीक्षा कर रहे थे कि ब्राह्मण-पुत्र अब बोले-अव वोले ? किन्तु वे नहीं वोने । उनकी जिह्वा को काठ मार गया। तव ग्रामवासियो ने ही जिजामा प्रगट की
--पूज्यश्री | आप ही बताये । सत्यमुनि ने बताया
ब्राह्मणो । पूर्वजन्म मे तुम दोनो इसी ग्राम की वनस्थली मे मासभक्षी सियाल (गीदड) थे। एक रात्रि को एक कृषक अपने खेत मे चर्म रज्जु (चमडे की रस्सी) छोड गया। तुम चर्म लोभी तो थे ही उसे खा गए । वह रज्जु तुम्हारे उदर मे जाकर अटक गई और तुम्हारा प्राणान्त हो गया । श्रृगाल गरीर छोडकर तुमने मनुष्य गरीर पाया।
प्रात काल उस हलवाहे ने आकर देखा तो चर्म-रज्जु गायव मिली । अनुक्रम से उसने भी कालधर्म प्राप्त किया और अपनी ही पुत्र-वधू के उदर से पुत्र उत्पन्न हुआ। उसको किसी कारणवश जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह मन ही मन सोचने लगा---'अरे । यह तो मेरी पुत्रवधू है, इमे माता केसे कहूँ और अपने ही पुत्र को पिता कैसे कह सकूँगा" ऐसा विचार कर वह मौन हो गया। लोगो ने समझा कि वालक गूंगा है। - लोगो की जिनामा और भी बढ़ गई । ब्राह्मग भाइयो की आँखो मे नन्देह अलकने लगा। उनके सन्देह निवारण तथा अपनी जिनासापूर्ति हेतु कुछ ग्रामवासी उस गूंगे वेडुक (हलबाहे) को मूरिजी के पास बुला लाये।