Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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- जैन कथामाला भाग ३३ * ' -एक क्षेत्र मे दो तीर्थकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव और दो वासुदेव एक समय मे नही होते ।
-तो फिर यह कृष्ण कहाँ के वासुदेव है ?
प्रभु ने अमरकका नगराधिपति द्वारा द्रौपदी के अपहरण की घटना वताते हुए कहा-कृष्ण जम्बूदीप के भरतक्षेत्र के वासुदेव है।
अपने समान ही दूसरे वीर से भेट करने की इच्छा कपिल वासुदेव के हृदय मे उत्पन्न हो गई, वह बोला
–प्रभु । मेरी हादिक इच्छा है कि मै इनका जातिथ्य करूँ। भगवान ने फरमाया
—कपिल | ऐसा न कभी भूतकाल मे हुआ है और न भविष्य मे हो सकेगा कि एक तीर्थकर दूसरे तीर्थकर को, चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती को, बलदेव-वलदेव को और वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखे । तुम उसे देख भी नही सकोगे। तुम अधिक से अधिक उसकी श्वेत-पीत ध्वजा को देख सकोगे और शख-ध्वनि का मिलाप कर सकोगे।
कपिल वासुदेव ने भगवान को नमन किया और रथारूढ होकर समुद्र तट पर आये । लवण समुद्र के बीच मे जाते हुए श्रीकृष्ण के रथ की श्वेत-पीत ध्वजा उन्हे दिखाई दी। हर्पित होकर उन्होने शखनाद किया । गख-ध्वनि कृष्ण के कानो मे पडी। उन्होने भी शखनाद का उत्तर शंख पूरित करके दिया। . समवेत गख-स्वर देशो दिशाओ में गूंज गया । अपने समान ही बली कृष्ण वासुदेव की शख-ध्वनि को सुनकर कपिल वासुदेव सतुष्ट
हुए।
तत्काल ही उन्हे पद्मनाभ के दुष्कृत्य का स्मरण हो आया। वे अमरकका नगरी जा पहुँचे और पद्मनाभ की वहुँत भर्मेना की । उसे राज्य-भ्रष्ट कर दिया और उसके पुत्र को वहाँ का गांसक बना दिया । पद्मनाभ को अपनी करनी का उचित फल मिला।
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