Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 332
________________ 3०४ जैन कथामाला- भाग ३३ ठनका । सोचने लगा-यह तो मेरी पुत्री के जीवन के साथ खिलवाड है। यदि प्रवजित ही होना था तो मेरी पुत्री का जीवन क्यो बरवाद किया। उसे क्रोध आ गया । वदला लेने की ठानी। उसने चारो ओर देखा कोई नही था । विवेकान्ध होकर उसने पास की तलैया मे से गीली मिट्टी लेकर उनके सिर पर पाल वाँधी। उसमे जलती चिता से उठाकर अगारे भर दिये और चला आया। मुनि गजसुकुमाल का नवमु डित सिर जलने लगा । असह्य वेदना हुई। किन्तु उन्होंने इसे समताभाव से सहन किया और शरीर त्याग कर अशरीरी वने, मुक्त हो गए। दूसरे दिन प्रात श्रीकृष्ण परिवार सहित भगवान अरिष्टनेमि की वदना हेतु पहुँचे किन्तु वहाँ मुनि गजसुकुमाल को न देखकर पूछा -प्रभो । मुनि गजसुकुमाल नही दिखाई दे रहे है ? भगवान ने बताया-वह तो रात्रि को ही कृतकृत्य हो गया। चकित होकर कृष्ण ने पूछा-एक ही दिन मे लक्ष्य प्राप्ति ? ऐसी अद्भुत साधना ? -हॉ, आत्मा मे अनन्तशक्ति है, इसमे आश्चर्य ही क्या ? फिर उमे एक सहायक भी मिल गया। .. कृष्ण समझ गये कि किसी विद्वेपी ने घोर उपसर्ग किया होगा जिसको समतापूर्वक सहकर मुनि गजसुकुमाल ने मुक्ति पाई । उनकी आँखे लाल हो गई । किन्तु विनम्रतापूर्वक पूछा -यह अनार्य कर्म किसने किया ? कहाँ रहता है वह ' . -रहता तो इसी नगरी मे है किन्तु तुम उससे द्वेष मत करो। वह तो मुनि को मुक्ति-प्राप्ति मे निमित्त ही हुआ। जिस प्रकार तुम उस वृद्ध के लिए सहायी. हुए। -भगवान ने कहा। वास्तव मे वासुदेव ने नगरी से बाहर निकलते समय एक वृद्ध की सहायता की थी। वह वृद्ध पुरुष अति जर्जरित था। वाहर, पडे हुए ई टो के ढेर मे से एक-एक ईट ले जाकर-अन्दर रखता था। श्रीकृष्ण

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