Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर के पांडुराजा की पुत्रवधू सर्वश्रेष्ठ है। तुम्हारा सम्पूर्ण अन्त पुर उसके पैर के एक नाखून की भी समता नही कर सकता।
-ऐसी सुन्दर है ?--पद्मनाभ ने विस्मित होकर पूछा। -हाँ ऐसी ही ।-नारद ने प्रत्युत्तर दिया।
नारद के मुख से द्रौपदी की प्रगसा सुनकर पद्मनाभ की आँखो मे चमक आ गई। उसके हृदय मे काम जाग्रत हो गया। नारदजी ने देखा कि तीर निशाने पर लगा है तो उठकर खडे हो गए। पद्मनाभ ने उन्हे सत्कारपूर्वक विदा कर दिया।
देवर्षि नारद तो उसकी वासना भडका कर चले गए पर अव पद्मनाभ को चैन कहाँ ? वह कल्पना मे ही द्रौपदी की सुन्दरता के चित्र बनाने लगा। किन्तु कल्पना से काम नही चलता, फल प्राप्ति के लिए कर्म आवश्यक है। उसने अपने इप्टदेव का स्मरण किया। उसका इष्टदेव पातालवासी सागतिक देव था। आराधना से प्रसन्न होकर वह प्रकट हुआ और बोला
-पद्मनाभ ' मुझे क्यो स्मरण किया? तुम्हारा क्या काम करूँ ? अजलि वाँध कर पद्मनाभ ने कहा
द्रौपदी को लाओ। सागतिक देव ने अवधिज्ञान से उपयोग लगाकर देखा और पद्मनाभ से कहने लगा____-राजन् ! द्रौपदी पाडवो के अतिरिक्त और किसी की. इच्छा नही करती। उसे बुलाना व्यर्थ है। - --जब वह यहाँ आ जायेगी तो मैं उसे मना लूंगा। तुम उसे यहाँ ले आओ।
देव ने समझ लिया कि पद्मनाभ मानेगा नही । इसलिए वह 'जैसी तुम्हारी इच्छा' कहकर अन्तर्धान हो गया।
रात्रि को हस्तिनापुर के अन्त पुर मे सागतिक देव पहुँचा। उसने अवस्वापिनी विद्या से सबको गहरी नीद मे सुला दिया और द्रौपदी को