Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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- मुझे वापिस भेज दो अन्यथा - अन्यथा क्या होगा ?
—तुम्हारा नाग | पद्मनाभ तुम केवल मेरे नाम से ही परिचित हो । यह नही जानते कि मैं वासुदेव श्रीकृष्ण की वहिन हूँ । वे तुम्हारा सत्यानाश कर देगे ।
द्रौपदी के शब्दो को सुनकर खिलखिलाकर हँस पडा पद्मनाभ | कहने लगा
- तुम भ्रम मे हो द्रौपदी । वे वासुदेव होगे जम्बूद्वीप मे स्थित भरतार्द्ध के और यह धातकीखण्ड का भरतक्षेत्र है । नाम साम्य से तुम्हे भ्रम हो गया है | वे यहाँ मेरा कुछ न बिगाड सकेगे । तुम्हे मेरी इच्छा स्वीकार करनी ही होगी ।
पद्मनाभ की बात पर द्रौपदी विचारमग्न हो गई । उसने समझ लिया कि इस समय तो मै इस व्यभिचारी के पजे मे फँस गई हूँ अत चतुराई से काम लेना पडेगा । उसने शान्त स्वर में कहा
- ठीक है, अब तुम्हारी इच्छा स्वीकार करने के अतिरिक्त और उपाय भी क्या है । मै तुम्हारी बात मानूँगी किन्तु एक शर्त है
- वह क्या ?
- मुझे कुछ समय चाहिए । —क्यो ?
द्रौपदी ने मधुर स्वर मे समझाया
।
- राजन् । तुम इतना भी नही जानते । अपने पति को स्त्री एकाएक कैसे भूल सकती है ? ठीक है कि तुमने मेरा अपहरण करा लिया । मेरा शरीर तुम्हारे वश में हो सकता है किन्तु मन को वश मे करने के लिए कुछ समय तो चाहिए हो ।
पद्मनाभ द्रौपदी के मधुर शब्दो से आश्वस्त सा हुआ । उसे लगा कि द्रोपदी का कथन यथार्थ है। ठीक ही तो कहती है कोई नारी अपने 'पति को, उसके साथ किये सुख-विलासो को अचानक ही कैसे भूल सकती है । हृदय कोई पट्टी तो है नही कि लिखा और मिटा दिया । -इस प्रकार विचार करके बोला