Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कयामाना , भाग ३३ -आप नही जानते स्वामी ! मौन से तो मरी मरम्मत को जायगी। पिताजी कुपित होकर मुझे तरह-तरह के पास देगे।
-तुम्हे कोई नाम नहीं दे सकता। -क्यो ? --मैंने मन्त्र गक्ति से तुम्हारे गरीर को मन्त्रित कर दिया है, इनलिए।
वैदर्भी को विश्वास हो गया और प्रद्युम्न वहाँ ने चला आया।
रात्रि जागरण के कारण प्रात काल वैदर्भी गहरी निद्रा में निमग्न हो गई । धायमाता उसे जगाने आई तो विवाह के चिह्न देखकर चकित रह गई । वैदर्भो को जगा कर पूछा तो उसने कुछ भी उत्तर न दिया। धायमाता से नक्मि को पता चला तो उसने भी पुत्री से पूछा । किन्तु पुत्री मीन ही रही। कभी वह प्रेम से पूछता तो कभी दण्ड का भय दिखाता किन्तु वैदी तो मानो पत्थर की मूर्ति बन गई । हार-अकमार कर उसने अनुचर भेजा और उन दोनो किन्नर-चाटालो को बुलवा लिया । वैदर्भी को देते हुए उनसे कहा
-इस कन्या को ग्रहण करो। प्रद्युम्न ने राज्य-कन्या में पूछा
क्या तुम सहर्ष मेरे साथ चलने को प्रस्तुत है ? वैदर्भी ने स्वीकृति दे दी। वे दोनो उसे लेकर चल दिए।
कुछ समय पश्चात् रुक्मि राजसभा मे आया। तव तक क्रोध शात हो चुका था। वह अपने अकृत्य पर पश्चात्ताप करने लगा। वार-बार उसके हृदय मे विचार उठता-मैंने बुरा किया। पुत्री को चाडाल के हवाले नही करना चाहिए।' तभी उसके कानो मे वाद्यों की मधुर ध्वनि पड़ी । उमने सभासदो से पूछा
-यह मधुर ध्वनि कहाँ से आ रही है ? कोई कुछ न वता सका। सभी मौन थे—अनभिज्ञ थे। अनुचरो को भेजकर पता लगवाया गया तो उन्होंने आकर बताया-स्वामी नगर के बाहर द्वारकाधीश कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और शाव एक महल