Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा-प्रद्युम्न का द्वारका आगमन
२३१ ही हे-भूखे भजन न होहि गुपाला । भोजन की व्यवस्था करो। पेट भरते ही तुम्हे सुन्दर बना दूंगा।
तुरन्त ही भोजन का आदेश हुआ। ब्राह्मण ने कहा
---महारानीजी ! जब तक मैं भोजन करूं आप कुलदेवी के सामने वैठकर एकाग्रचित्त से 'रुडु वुडु रुडुवुडु' मत्र का जाप करिए। ___ सुन्दर बनने की लालसा मे विवेकहीन बनी सत्यभामा वहाँ से उठी और कुलदेवी के समक्ष ब्राह्मण के वताए मन्त्र का दत्तचित्त होकर जाप करने लगी। . भोजन करने वैठे ब्राह्मण देवता तो रसोई ही सफाचट कर गए। दासियाँ हैरान रह गई । पूरी वारात की भोजन सामग्री खतम करने पर भी पेट न भरा 'और लाओ, और लाओ' कहता रहा। दासियो ने हाथ जोड कर कहा___-भोजनभट्ट । अव तो कृपा करो। रसोई मे कुछ नही बचा। कही और जाओ।
-जाता हूँ, फिर मुझसे शिकायत न करना । और रूठ कर ब्राह्मण देवता चल दिए। . ___ अवकी वार प्रद्युम्न किशोर साधु के रूप मे रुक्मिणी के महल मे जा पहुँचा । दूर से ही साधु को देखकर रुक्मिणी र्षित हुई और साधु के बैठने योग्य आसन लेने हेतु घर के अन्दर गई । तब तक वह साधु श्रीकृष्ण के सिंहासन पर जा जमा। रुक्मिणी आसन लेकर आई तो उसे वहाँ बैठा देखकर चकित रह गई। वोली- - ___-इस सिंहासन पर श्रीकृष्ण और उनके पुत्र के अलावा किसी अन्य को देव लोग नहीं बैठने देते। तुम उतर जाओ। ___-मेरे तपोतेज के कारण देव लोग मेरा कोई अहित नही कर सकते। माधु ने दृढतापूर्वक कहा । __ -इतनी छोटी आयु और ऐसा तपोतेज ।- रुक्मिणी के स्वर मे आश्चर्य था।