Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला भाग ३२ दैव भी वडा बलवान है । सत्यभामा को भी गर्भ रह गया । उसके गर्भ मे साधारण जीव आ गया। सामान्य जीव होने के कारण सत्यभामा का उदर बढने लगा किन्तु रुक्मिणी के गर्भ मे विशिष्ट पुण्यात्मा जीव था अत वह कृशोदरा ही रही। __ज्यो-ज्यो सत्यभामा का उदर वढता जाता उसके हृदय की कली खिलती जाती। उसे यह देख कर और भी सतोप होता कि रुक्मिणी के उदर पर गर्भ के कोई लक्षण नहीं है। एक दिन उनके मनोभाव मुख से निकल ही गए । वह कृष्ण से बोली
—नाथ ! आपकी पत्नी रुक्मिणी वडी झूठी है । -क्यो?- अचकचा कर कृष्ण ने पूछा। -वह आपको भी धोखा देने से नहीं चूकती। -क्या ? वात क्या हुई ?
-अरे आप तो भूल ही गए। उसने अपने गर्भवती होने की आपको झूठी खवर दी थी। हम दोनो का उदर देखोगे तो आपको विश्वास हो जाएगा।
कृष्ण कुछ उत्तर देते इससे पहले ही एक दासी ने आकर समाचार दिया
-देवी रुक्मिणी ने स्वर्ण की मी काति वाला एक उत्तम पुत्र प्रसव किया है।
कृष्ण ने मन्द स्मित से सत्यभामा की ओर देखा। उसका चेहरा वुझ चुका था। - कुछ काल पञ्चात् सत्यभामा ने भी एक पुत्र को जन्म दिया और उस पुत्र का नाम रखा गया भानुक ।
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वासुदेव रुक्मिणी के नवजात शिशु को अक मे लेकर खिला रहे थे । कभी उसके कपोल सहलाते तो कभी मस्तक । पुत्र भी पिता के अक मे किलक रहा था। टुम-टुम करती छोटी-छोटी आँखो से पिता के मुख को देखता और हाथ-पैर चला कर प्रसन्नता व्यक्त कर देता।