Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जंन कयामाला माग ३१ -यह पाडा मपूर्ण नगरी में जहा चाहे स्वेच्छापूर्वक धूनता रहे। कुछ दिन बाद कुमार मृगध्वज ने पाडे का एक पैर काट दिया। गजा को पता चला तो उसने पुत्र को नगर से बाहर निकाल दिया । कुमार मृगध्वज ने श्रामणी दीक्षा ग्रहण करली।
पाँव कटने के अठारहवे दिन पाडे की मृत्यु हो गई और बावीसवे दिन मृगध्वज को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देव, असुर, सुर, राजा, मत्री आदि सभी उनकी बदना हेतु आये । देगना के अन्त मे राजा जितशत्रु ने पूछा---- आपका पार्ड के माय क्या वैर था कि उसका पॉव काट लिया ? केवली मृगध्वज ने फरमाया
पहले अश्वग्रीव नाम का प्रतिवासुदेव (अर्द्ध चक्री) था । उसका एक मत्री था हरिश्मश्र । राजा जैन धर्मावलवी था और मत्री अर्हन्त धर्म विरोधी । उन दोनो में परस्पर वाद-विवाद होता । धीरे-धीरे उनका वैर बट गया । वासुदेव त्रिपृष्ट के हाथो मृत्यु पाकर दोनो सातवे नरक गये । अनेक भवो मे भ्रमण करते हुए अश्वग्रीव का जीव तो मैं मृगध्वज हुआ और हरिश्मश्रु का जीव यह पाडा। पूर्व वर के कारण ही मैंने इसका पैर काटा था। वह पाडा मरकर रोहिताश नाम का असुर हुआ है । यह देखो वह मुझे वदन करने आ रहा है । ससार का नाटक वडा विचित्र है।
इसके पश्चात् असुर लोहिताक्ष ने केवली मृगध्वज का वदन किया। ब्राह्मण ने वसुदेव को सम्बोधित किया
भद्र | उसी लोहिताक्ष असुर ने ये तनि मूर्तियाँ इस देवगृह मे स्थापित कराई -- एक मुनि मगध्वज की, दूसरी श्रेष्ठि श्रावक कामदेव की और तीसरी तीन पॉववाले पाडे की। इसी कारण इस के तीन द्वार रखे और मुख्य द्वार को बत्तीस साँकलो से जकड दिया ।
वसुदेव ब्राह्मण की बात ध्यान से सुनकर वोलेद्विजश्रेष्ठ | क्या तव से ये साँकल अव तक खुली नही ?