Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला भाग ३१
अनुसार कि 'औदारिक शरीर की दुर्गन्ध सामानिक देव नही सह पाते' वे मुझसे विवाह नहीं कर सकते ।
-वे तो इसी अभिप्राय से यहाँ आये है।
-आप उन्हे अरिहन्त प्रभु के वचनो का स्मरण कराके मेरा प्रणाम कह देना और यह भी बता देना कि कनकवती मन-वचन-काय से वसुदेव की ही पत्नी है।
वसुदेव ने पुन समझाया
~कनकवती । भली भॉति सोच लो । देवो की इच्छा अनुल्लघनीय होती है।
-अनुल्लघनीय तो अर्हन्त प्रभु की वाणी ही है। मानवी (मनुष्य स्त्री) के लिए देव पूज्य और आदर योग्य तो हो सकते है किन्तु पति वनने योग्य नही, उसका पति तो मनुष्य ही हो सकता है। -कनकवती ने समझाते हुए आगे कहा
-आपका दूत कार्य समाप्त हुआ।
राजकुमारी के दृढ उत्तर को सुनकर वसुदेव अदृश्य होकर वहाँ से चल दिये । कुवेर के पास आकर पूरा वृतान्त सुनाने को हुए तो कुबेर ने उन्हे रोक कर कहा
-मुझे सब मालूम है, कुछ कहने की आवश्यकता नही।
वसुदेव कुमार चुप हो गये । कुवेर ने अपने अन्य अनुचरो के समक्ष उनकी प्रशसा की
-यह पुरुप निर्मल चरित्र वाला है।
प्रसन्न होकर कुबेर ने वसुदेव को सुरेन्द्रप्रिय नाम का दिव्य गध वाला देवदूष्य वस्त्र, सूरप्रभ नाम का मुकुट, जलगर्भ नाम के दो कुडल, शशिमयूख नाम के दो केयूर (बाजू बन्ध), अर्घ शारदा नाम की नक्षत्रमाला,' सुदर्शन नाम के विचित्र (रुचिर) मणि-जटित
१ यह सत्ताइस मोतियो से बना हार होता है । भाकाशस्थ नक्षत्रमाला
मे भी सत्ताइस नक्षत्र है। इसी कारण नक्षत्रमाला मे सत्ताइस मोती होते है।