Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा--लौट के वसुदेव घर को आये
१०६ किन्तु उसका वार खाली गया और वसुदेव का जो पहला वार पडा तो पराजित हो गया वेचारा। दन्तवक सामने आया तो वसुदेव ने उसका मुंह फेर दिया और वह पीठ दिखा कर भागा । शल्य-राजा के फेफडे फूल गए। वह विकल होकर लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगा। हाथ-पैर ऐसे कॉपने लगे कि शस्त्र ही हाथ से गिर पड़े और फिर उठाने की उसकी हिम्मत ही न हुई।
इसी प्रकार सभी राजा दुर्द्धर्ष वसुदेव की विकट मार से घबडा कर वगले झाँकने लगे।
अपने कटक का पराभव और प्रतिद्वन्द्वी की विलक्षण शक्ति देख कर जरासघ नमुद्रविजय से वोला
-यह कोई साधारण वादक नही है। इसने तो अकेने ही सभी राजाओ का पराभव कर दिया । अव आप ही युद्ध मे उतरो और इसका काम तमाम कर दो। इसको मारते ही राजकन्या रोहिणी तुम्हारी हो जायगी।
समुद्रविजय ने उत्तर दिया
-राजन् । पर-स्त्री मुझे नही कल्पती। किन्तु आपकी इच्छा मानकर मैं इस वलवान पुरुष से युद्ध करूंगा।
यह कहकर समुद्रविजय युद्ध मे उतर पडे ।
दोनो भाइयो मे अनेक प्रकार के अस्त्रो से युद्ध होने लगा। वहुत देर तक युद्ध होने पर भी जय-पराजय का निर्णय न हो पाया। समुद्र विजय सोचने लगे-'यह कैसा वीर है जो अभी तक वश मे नही
आया ? क्या मैं इसे न जीत सकूँगा।' ___ भाई के मुख पर आई चिन्ता को लकीरो को वसुदेव ने पढ़ लिया। वे भ्रातृप्रेम से व्याकुल हो गए। अग्रज का पराभव वह कर नही सकते थे। अत उन्होने एक वाण छोडा जिस पर लिखा हुआ था - 'छद्म (कपट वेश बदल कर) रूप मे निकला हुआ आपका सबसे छोटा भाई वसुदेव आपको प्रणाम करता है।'
वाण समुद्रविजय के चरणो मे आ गिरा। उन्होने बाण पर लिखे अक्षरो को पढा तो हर्ष विह्वल हो गए। अस्त्र-शस्त्र वही छोडे और