Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
श्रीकृष्ण-कथा-माता का न्याय
८६ स्त्री अन्याय नहीं देख सकती तो मॉ पुत्र का मरण भी नहीं। पुत्र को वधनग्रस्त देखकर अगारवती का मातृस्नेह उमड आया।' सोमश्री के हरण के कारण वह पुत्र से नाराज थी। इसीलिए उसने न्याय पथ के अनुयायी वसुदेव को दिव्यास्त्र दिये। माता अगारवती का यह कार्य अपने पुत्र को दडित करने-जैसा था। उसने वसुदेव से कहा
- वत्स | मानसवेग को दण्ड मिल चुका। अब इसे बधनमुक्त कर दो।
वसुदेव मातृ हृदय की अवहेलना न कर सके। उन्होने मानसवेग के वधन खोले और अगारवती से कहा
-आपके आदेश का पालन हुआ। मानसवेग धर्म और न्यायपूर्वक अपने राज्य का पालन करे । हमे जाने की आज्ञा दीजिए। ____अगारवती से स्वीकृति लेकर वसुदेव सोमश्री के साथ विमान मे । वैठकर महापुर आ गये और सुखपूर्वक रहने लगे।
कदाग्रही व्यक्ति अपनी नीचता से बाज नहीं आता। एक बार तो सूर्पक वसुदेव से पराजित हो ही चुका था किन्तु फिर भी उसने शत्रुता का भाव नही त्यागा। एक दिन अश्व का रूप धारण करके वसुदेव का हरण कर ले जाने लगा किन्तु एक मुष्टि प्रहार भी न सह सका। एक मुक्के मे ही विह्वल होकर निकल भागा। आधार रहित होकर व सुदेव भी गगा की धारा मे गिर पडे । वहाँ से निकल कर चले तो एक तापस के आश्रम मे जा पहुंचे।
आश्रम मे एक स्त्री अपने कठ मे अस्थियो की माला पहने खडी थी। वसुदेव ने कौडियो की, शखो की, रुद्राक्ष और तुलसी आदि की माला तो तापस स्त्रियो को पहने देखा था किन्तु मानव-अस्थियो की माला ? यह पहली ही घटना थी। उत्सुकतावश उन्होने तापसियो से उस स्त्री का परिचय पूछा । एक तापस ने बताया'यह जितशत्रु राजा की स्त्री नदिपेणा है । किसी सन्यासी ने इसे