Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण - कथा - नवकार मन्त्र का दिव्य प्रभाव
उसी समय दो विद्याधर वहाँ आये और मुनि को प्रणाम किया । उनका रूप मुनि के समान ही था। मैंने मन मे जान लिया कि ये दोनो ही मुनिश्री के पुत्र हैं। तभी उनसे मुनिश्री ने कहा- इस चारुदत्त को भी प्रणाम करो ।
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वे दोनो 'हे पिता । हे पिता " कहकर मेरे पैरो मे गिर पडे । मैने उन्हें स्नेहपूर्वक उठाया और अपनी ही वगल मे विठा लिया ।
इसी दौरान आकाश से एक विमान उतरा । उसमे से एक देव ने निकल पहले मुझे प्रणाम किया और फिर प्रदक्षिणापूर्वक मुनि की वन्दना की । इस विपरीत वात पर दोनो विद्याधर विस्मित रह गये । उन्होने पूछा
- हे देव | तुमने वन्दना मे उलटा क्रम क्यो किया ? सकल सयमी की वन्दना पहले की जाती है, न कि वाद मे ।
-- विद्याधर । चारुदत्त मेरा धर्मगुरु है । इसी कारण मैंने इसे पहले नमन किया है । देव ने उत्तर दिया |
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जिज्ञासा जाग उठी दोनो विद्याधरो की । देव अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाने लगा
काशीपुर मे दो सन्यासी रहते थे । उनकी बहने थी सुभद्रा और सुलसा । दोनो ही वेद-वेदागो की प्रकाड पडिता थी । अनेक वादी उनसे पराजित हो चुके थे। एक बार वाद-विवाद हेतु आया याज्ञवल्क्य नाम का सन्यासी । शर्त तय हुई कि हारने वाला विजयी का दासत्व स्वीकार करेगा । वाद हुआ। सुलसा पराजित होकर याज्ञवल्क्य दासी बन गई । तरुणी दासी सुलसा का सान्निध्य पाकर सन्यासी याज्ञवल्क्य की कामाग्नि प्रज्वलित हो गई । स्वामी का दासी पर पूर्ण अधिकार होता ही है । सन्यासी निराबाध काम सेवन करने लगापरिणाम प्रगट हुआ एक पुत्र के रूप मे । पुत्र ने उनको दुहरी विपत्ति मे डाल दिया - एक तो निरावाव भोग मे बाधा और दूसरी लोकापवाद । ऐसे कटक को कौन गले बाँधे ? सन्यासी जी ने पुत्र को