Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कथामाला : भाग ३१
- हे देवेन्द्र | यह मुनि कौन है, हमको तो मालूम नही । विद्या-धर राजा विद्युह ष्ट्र ने 'यह उत्पाती है' कह कर हमसे यह अकार्य कराया है । हम निर्दोष हैं, क्षमा करो ।
धरणेन्द्र ने उन्हे प्रताडना दी
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- निर्दोष तो तुम भी नही हो । जैन श्रमणो पर उपसर्ग करने वाला अपराधी ही होता है | चाहे वह किसी अन्य की प्रेरणा मे उप-द्रव करे या स्वय ।
- क्षमा । देवेन्द्र क्षमा || विद्याधरी का कातर स्वर गूंजा ।
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दया आ गई धरणेन्द्र को । उसके मुख से निकला -
-ठीक | तुम दुवारा विद्या सिद्ध कर लो । परन्तु याद रखना अर्हन्त और उनके अनुयायियों से तनिक भी त्रेप किया तो सदा-सदा के लिए विद्याविहीन हो जाओगे ।
- सभी विद्याएँ पुन प्राप्त हो जायेगी हमको ? विद्याधरो ने पूछा ।
- नही | दुर्मति विद्यह प्ट को प्रज्ञप्ति आदि महा विद्याएँ कभी सिद्ध नहीं होगी। उसके वशधरो को भी नही ।
- देवेन्द्र | कोई अन्य उपाय बताइये । विद्याहीन विद्यावर का जीवन मृत्यु से भी बुरा होता । अनुचरो ने अनुनय की ।
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— मैं कैवल्योत्सव मनाने जा रहा हूँ इमलिए किसी का अहित नही करना चाहता । विद्युदृष्ट्र के किसी वंशथर को यदि किसी केवली श्रमण अथवा महापुण्यवान जीव के दर्शन हो जायँ तो उमे विद्या सिद्ध हो सकती है ।
यह कह कर धरणेन्द्र मुनि का कैवल्योत्सव मनाने चला गया । उसके बाद उसके वा मे केतुमती नाम की कन्या हुई ।
केतुमती विद्या सिद्ध कर रही थी। उसी समय वासुदेव पुण्डरीक ने उससे विवाह कर दिया । परिणामस्वरूप उसे विद्या सिद्ध हो गई । वह सुन्दर कन्या वमुदेव को संबोधित करके वोली
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- हे महाभाग | मै भी विद्याधर विद्युह ट्र के वश में उत्पन्न हुई हूँ ।