Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीकृष्ण-कथा -- एक कोटि द्रव्य दान का विचित्र परिणाम
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करते रहे और फिर वहाँ से चल कर एक तापस के आश्रम मे जा
'पहुँचे ।
तापम के आश्रम में दोनो सुखपूर्वक रहने लगे ।
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एक दिन वेगवती को नदी मे बहती हुई एक युवती दिखाई पडी । उसका अग अग पाग से बँधा हुआ था । उसकी प्रेरणा से वसुदेव ने उस - कन्या को नदी मे निकाला और वघनमुक्त किया । कुछ समय बाद - सचेत होकर कन्या वसुदेव से बोली
- हे महात्मन् | आपके प्रभाव से मेरी विद्या आज सिद्ध हो गई । - मैं आपकी बहुत कृतज्ञ हूँ ।
वसुदेव ने पूछा
?
- सुन्दरी । तुम हो कौन और विद्यासिद्धि कारण क्या है कन्या ने अपना परिचय बताया
वैताढ्य गिरि पर गगनवल्लभ नगर है । इसमे पहले विद्याधर "राजा नमि का वगधर कोई विद्युर्हष्ट राजा राज्य करता था । उसने किसी मुनि को कायोत्सर्ग में लीन देखा । घोर पाप का उदय आगया था उसका इसीलिए परम गात और निस्पृही मुनि को देखते ही अपने अनुचरो से बोला- 'यह कोई उत्पाती है । इसे वरुणालय मे ले जाकर 'मार डालो ।'
अनुचरो को स्वामी की आज्ञा मिली और वे मुनिराज को मारने लगे । परम धीर मुनिश्री इस उपसर्ग से तनिक भी खिन्न न हुए वरन् शुक्लध्यान मे लीन हो गये । उपसर्ग होते रहे और मुनि गुणस्थान चढते रहे । नवाँ, दावाँ और वारहवाँ पार कर तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त कर लिया । वे केवली हो गये ।
उनका कैवल्योत्सव मनाने धरणेन्द्र आया तो उसने सभी अनुचर विद्याधरो ओर विद्यह ष्ट्र को विद्याभ्रष्ट कर दिया ।
विद्याहीन विद्याधर का जीवन तृणवत् होता है। अनुचरो ने धरणेन्द्र ने विनती की