Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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अनेक विवाह
उद्यान मे इन्द्रगर्मा इन्द्रजालिक के आश्चर्यजनक करतबो को देखकर वसुदेव कुमार ठगे से रह गये । इस विशिष्ट विद्या को सीखने की इच्छा जागृत हुई। तमाशा खत्म होने पर बोले
-भद्र | यह विद्या मुझे भी सिखा दो।
-सीख तो सकते है आप, किन्तु साधना थोडी कठिन है। -इन्द्रजालिक ने उत्तर दिया।
--कुछ भी हो यदि आप सिखाएँ तो मै अवश्य सीख लूंगा।
-~-यदि आप दृढ प्रतिज हैं तो इस मानसमोहिनी विद्या को ग्रहण कीजिए।
-इसकी माधना-विधि ?-वसुदेव ने पूछा। इन्द्रशर्मा बताने लगा--
-इस विद्या का सावन सायकाल के समय प्रारम्भ किया जाता है और प्रात सूर्योदय तक सिद्ध हो जाती है। समय तो केवल एक रात का ही लगता है परन्तु उपद्रव वहुत होता है । इस कारण किसी सहायक का होना आवश्यक है। . ___-किन्तु मेरा तो कोई सहायक नहीं है। परदेशी का मित्र भी कौन हो सकता है ?
-मै वनूंगा आपका सहायक । आप चिन्ता न करे । विद्या सिद्ध करना प्रारम्भ कर दे। मै और मेरी स्त्री वनमालिका आपकी सहायता करेंगे।-इन्द्र शर्मा ने आश्वासन दिया।
आश्वस्त होकर वसुदेव विद्या-जाप करने लगे और सहायक बने इन्द्रशर्मा और उसकी पत्नी वनमालिका ।