Book Title: Jain Shrikrushna Katha
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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जैन कयामाला भाग ३१ समुद्रविजय ने दूत को आदर सहित उचित आसन देकर पूछा।
-सव कुशल तो है ? क्या विशेप मदेश लाये हो? दूत ने अपने स्वामी का सन्देश बताया
-राजन् । वैतादयगिरि के समीप सिहपुर नगर के गजा सिंह रथ को वाँच लाइये।
-क्यो ? क्या अपराध है उसका ?
-वह वडा दुर्मद और दुनह हो गया है। स्वामी ने यह भी कहा है कि सिंहरथ को बन्दी बनाने वाले पुल्प के साथ उनकी पुत्री जीवयगा का विवाह कर दिया जायगा और पारितोपिक रूप मे एक समृद्ध नगर दिया जायगा। ___राजा समुद्रविजय को पारितोपिक का लोभ तो विल्कुल भी न था वरन् वे जीवयशा से दूर ही रहना चाहते थे। किन्तु जरासघ की इच्छा की अवहेलना भी नहीं की जा सकती थी। वे सोच-विचार मे पड गये । उनकी चिन्तित मुख-मुद्रा देखकर दूत ने व्यग किया
-~-क्या सिहरथ का नाम सुनते ही दिल बैठ गया। कुमार वसुदेव से रहा नहीं गया । वे तुरन्त वोल पड़े--दूत | तुम निश्चिन्त रहो। सिंहस्थ को वन्दी ही समझो । और उन्होने अग्रज समुद्रविजय से विनती की
-भैया । आप मुझे आज्ञा दीजिए। मैं मिहरथ को वन्दी बनाकर आपके सामने हाजिर कर दूंगा। समुद्रविजय ने गभीरतापूर्वक उत्तर दिया-नही कुमार | मैं ही सिहरथ को विजय करूंगा।
कुमार वसुदेव ने पुन. आग्रह किया। समुद्रविजय ने कुछ सोच कर उन्हे आजा दी और चेतावनी देते हुए कहा
वसुदेव | तुम जाना ही चाहते हो तो मैं रोदूंगा नही। साथ मे अपने सेवक कस को भी अवश्य ले जाओ तथा उसे पराक्रम दिखाने