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एवं हस्तहस्ति' (ले० नं०५५) २२- भूतदिन (वी०नि०६०४-१८३२) दन्तिल (,६२) '. लेख नै ५२ पर जिसमें कि महावाचक गणि समदि का नाम श्राता है, कुषाण संवत् ५० अंकित है जो कि गणना में वीर निर्वाण सं० ६५५ श्राता है। नन्दिसूत्र पट्टाक्ली में आर्य समुद्र का नाम आर्य मंगु से पहले अाता है । आर्य मंगु का समय पट्टावली के अनुसार वीर नि० सं० ४६७ है। यदि यह ठीक है तब तो श्रार्य समुद्र का समय भी आर्य मंगु से पहले होना चाहिये । लेख में दिया गया कुषाण सं०५० (वी०नि० सं० ६५५.) यदि आर्य समदि का समय है तो इस हिसाब से पटावली के समय और लेख के समय में लगभग १८८ वर्ष का अन्तर आता है। पर वास्तव में लेख मं० ५२ में आर्य समदि का समय नहीं दिया गया बल्कि वह आर्य दिनर ( १ ) अादि की एक शिष्या द्वारा मूर्ति स्थापना का समय है । उक्त लेख में समदि शब्द के बाद कई अक्षर घिस गये हैं । यदि
रचना काल वि० सं० १३२७ है। १. शुद्ध नाम हस्ति-हस्ति प्रतीत होता है। हस्ति का पर्यायवाची नाग
होता है। यह संभव है कि नागहस्ति को लेख में हस्ति-हस्ति लिखा गया है। संभव है लेख को उत्कीर्ण करने वाले की भूल से हस्ति शब्द घस्तु हो गया हो, और दूसरे लेख में हस्ति का हल हो.
गया हो। २..वही, पृष्ठ १८, दिन और दत्तिल दोनों शब्द दत्त शन्द के प्राकृत
रूप होते हैं। ... ३. जैन परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण का समय विक्रम सं० से ४७.
वर्ष पूर्व है, अतः ई० सन् पूर्व ५२७ होगा । कुषाण संवत् ईस्वी सन् .. .७८ से प्रारंभ होता है अतः कुषाण संवत् के प्रारंभ में ५२७+७८
६०५ वीर निर्वाण सं० समझना चाहिये। डा० याकोबी के मतानुसार -, बीर निर्धारण ई० सन् पूर्व ४६७ में होता है। । .